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Sub : coaxing sullen wife
अब तक जितने मेल्स भेज चुका हूँ उनकी गिनती भी याद नहीं। वे सब पता नहीं कहाँ
गुम हो गए, किस अंतरिक्ष या आकाशगंगा में। तुमने एक का भी जवाब नहीं दिया, एक
लाइन की सूचना भी नहीं। तुम्हारा फोन हमेशा की तरह खामोश है। तुमसे कुछ कहने
की इच्छा हो तो ई-मेल भेजना, मेरे पास बस यही एक तरीका है, बिना जाने कि तुम
उन्हें पढ़ती भी हो या नहीं, और यह जानते हुए कि पिछले मेल्स की तरह इसका भी
कोई जवाब नहीं आएगा। लेकिन अब थकान होने लगी है। इसके बाद कोई भेज सकूँगा या
नहीं, मुझे नहीं पता, इसलिए इसमें सब कुछ लिख दूँगा, सारी बातें जो इतने बरसों
से बूँद-बूँद जमा होती गई हैं, मगर जिन्हें कहने का मौका कभी नहीं आया। शायद
पहले ही कह देनी चाहिए थीं। शायद पहले ही देर हो चुकी है।
तुम भागीं भी तो कब, सितंबर के महीने में। जब न सर्दी होती है न गर्मी - और
तुम्हारे सर्दियों के सारे कपड़े, स्वेटर और शालें और पिछले साल जो कोट खरीदा
था, सब यहीं रह गए। भागने के लिए सबसे अच्छा महीना फरवरी है, जाती हुई
सर्दियों का। एक छोटे से बक्से में सारा जरूरी सामान आ जाता है और छुट्टियाँ
दूर होने के कारण रेलगाड़ियों में भीड़ नहीं होती। अचानक जाना हो तो भी टिकट
मिल जाता है। उस वक्त तक कोहरा भी गुजर चुका होता है जिसकी वजह से गाड़ियाँ लेट
होती हैं। मगर तुम इस तरह नहीं भागी थीं। तुम मेरी गैरमौजूदगी में घर से नहीं
चली गई थीं। ऐसा नहीं हुआ था कि मैं दिन भर के बाद घर लौटा हूँ और खाली घर में
सिर्फ एक पर्ची या चिट्ठी मेरा इंतजार कर रही हो। तुम्हारी रुखसत के वक्त
बैकग्राउंड में न झींगुरों की आवाजें थीं न बिजली की कड़क न कोई दीवाना गाना।
मैं तो तुम्हें खुद स्टेशन पर छोड़ कर आया था, तुम्हारा सामान भी खुद पैक किया
था। तुम्हें खुद बिठा कर आया था उस बहुत लंबी ट्रेन में जिसे चलते जाना था,
चलते जाना था, चलते ही चला जाना था जैसे बरसों चलती रहेगी और कभी मंजिल तक
नहीं पहुँचेगी - फिर समंदर के किनारे उस मुश्किल नाम वाले शहर में जाकर रुकना
था जो पटरियों के आखिरी छोर पर है और जहाँ रिटायर होने के बाद तुम्हारे भाई और
भाभी रहते हैं। तुमने कहा था कि तुम थकान महसूस कर रही हो, यू नीड सम चेंज।
मुझे क्या पता था कि तुम भाग कर जा रही हो। और अब यहाँ इस शहर में एक एक शख्स
को पता है।
छोटा सा, पुराना, पोशीदा शहर है जहाँ सारी गाड़ियाँ भी नहीं रुकतीं, पलक झपकते
यहाँ के छोटे से प्लेटफार्म को पार कर जाती हैं। किसी जमाने में यह इस छोटी सी
रियासत की राजधानी हुआ करता था। तब बाकायदे यहाँ एक राजा था और रानी भी,
सेनापति भी, सेना भी और राज्य से जुड़े सारे तामझाम। मुकुट, तलवारें, तोपें,
घोड़े और हाथी और भारी भरकम, लहराते हुए परिधान, अस्तबल और पालकियाँ और रखैलें
सभी कुछ। वे सब तो अब पतली हवा में घुल गए मगर काफी बड़ा, एक पुराना, टूटा
फूटा, ढहता हुआ किला अब भी है। उसी किले के एक बाहरी हिस्से में मेरा कॉलेज
है, तुम्हें पता है, बचपन से देखती आई हो। इर्द गिर्द एक छोटा मोटा बाजार है
और चंद दुकानें। बाकी हिस्से में विशाल फाटक हैं, कँटीली तारें, जंजीरें और
भारी भरकम ताले। वहाँ कभी कोई नहीं जाता। किले का वह हिस्सा पूरे जमाने से
छुपा हुआ है और वक्त भी जैसे वहाँ तक जा कर वापस लौट आता है। वहाँ की जंजीरें,
तारें, ताले, दरवाजों की झिरियों में से झाँको तो भीतर एक सूखी, उजाड़
बावड़ी... जैसे वक्त के बाहर हैं, हमेशा से थे और हमेशा रहेंगे। कभी वहाँ रहने
वाले राजसी खानदान के वारिसों के वारिसों के वारिसों, उनके भी वारिसों जो
होंगे तो अब हजारों की तादाद में होंगे और सारे जहान में फैल गए होंगे, की
सरकार से कुछ कानूनी कशमकश अभी तक जारी है, इसी किले के बारे में, वहाँ की
दौलत - जवाहरों और याकूतों - के बारे में, ऐसी बातें यहाँ की हवा में तिरती
हैं - हालाँकि कौन वारिस, कहाँ किन अदालतों में, यह किसी को नहीं पता। मगर यह
भी कहा जाता है कि खानदान का हर निशान, हर चिराग, हर हड्डी, पहले पूर्वज से
आखिरी चिराग तक, जो कुछ भी है, बस वहीं है, उसी बंद किले के भीतर, उसके बाहर
कुछ नहीं। भीतर से, पता नहीं कौन सी कब्र या खोह या गार या दरार में से,
कभी-कभी कुत्तों के भौंकने या रोने की दिल दहला देने वाली आवाजें आती हैं।
वहीं भटकता रहता हूँ आजकल, किले के उसी बंद, उजाड़ हिस्से में। तालों और
जंजीरों और कँटीली तारों के बीच से एक पोशीदा रास्ता ढूँढ़ निकाला है, सिर्फ
थोड़ा झुक कर जाना होता है। वहाँ सब सुनसान और उजाड़ है। सन्नाटा इतना गहरा कि
डर लगे। मगर पूरे शहर से चेहरा छुपाना है, इसलिए। वहाँ नहीं तो स्टेशन पर, उसी
जगह जहाँ तुम्हें आखिरी बार देखा था। जिस तरफ तुम्हारी ट्रेन जाकर एक गोलाई
में मुड़ गई थी, उसी तरफ ताकता रहता हूँ जब तक पलकें न थकने लगें।
इसी छोटे से शहर में पैदा हुआ था, यहाँ का एक एक बाशिंदा मुझे जानता है। तुम
भी बचपन से यहाँ रहती थीं, लेकिन जन्म से नहीं। कलकत्ते से तुम्हारे फादर
ट्रांसफर होकर आए थे, हर समय बंगाल बंगाल करते थे। यहीं पढ़ाई हुई, बस बीच में
दो तीन साल हायर एजुकेशन के लिए दिल्ली में रहा, फिर इस कॉलेज में नौकरी करने
वापस लौट आया। अब बरसों गुजर जाते हैं और कहीं बाहर जाना नहीं हो पाता। दसवीं
और बारहवीं के छात्रों को इतिहास पढ़ाते उम्र बीत गई, वही राजे, महाराजे,
सुल्तान, सेनापति, सेनाएँ, चक्रवर्ती सम्राट। यह वर्ष, वो रियासत और वहाँ की
सल्तनत। और कत्लोगारत, बहुत सारा लहू। बचपन से क्या देखता हूँ, कॉलेज की
सालाना मैगजीन में मुखपृष्ठ के नीचे, पहले पन्ने पर जो खुरदुरी मैगजीन का
अकेला मोटा चिकना कागज होता है, राजा और रानी की ब्लैक एंड व्हाइट तसवीर छपा
करती है। कब से और क्यों, कोई नहीं जानता। कब से यह रिवाज शुरू हुआ, किसी को
नहीं पता। सरकारी कॉलेज की पत्रिका में राजा और रानी का क्या काम, यह भी कोई
नहीं बता पाता। तसवीर में राजा अपने रौबीले, सैकड़ों सलवटों वाले वजनी
वस्त्राभूषणों और भारी भरकम रत्नजड़ित पगड़ी में बहुत निरीह नजर आता है।
आभूषणों से लदी रानी जिसकी लहराती पोशाक को सँभालने के लिए सेविकाएँ साथ चलती
होंगी, वह इस कदर डरी हुई जैसे आखों के सामने कोई खूनी पंजा लहरा रहा हो। हर
साल वही तसवीर, ऊपर एक ही फोंट और आकार में 'हमारे पूज्यनीय' और नीचे बहुत
सारी उपाधियों और अलंकरणों के साथ राजा का इतना लंबा नाम जो दो पंक्तियों में
भी पूरा नहीं समाता। महाराजाधिराज (हिज होली मैजेस्टी) देवसदृश्य, देवप्रिय,
वीरोपम, वि़द्वत्जनप्रिय, साधुरक्षक, प्रजावत्सल और अशक्तों की शक्ति,
निर्बलों की सामर्थ्य, पता नहीं क्या-क्या।
किले के हमेशा बंद हिस्से से जब कुत्तों के भौंकने या रोने की आवाजें आती हैं
तब जैसे सिनेमा में दृश्य ठहर जाते हैं, उतनी देर के लिए सब कुछ जम जाता है।
म्यूजिक रूम में अभ्यास कर रही लड़कियाँ 'वर दे वीणा वादिनी' के बाद सहम कर
साँस रोक लेती हैं, चपरासी कुछ खा रहा हो तो उसके जबड़े जम जाते हैं और गंजा
और अधेड़ सिगरेटप्रेमी प्रिंसिपल पूरा कश भी नहीं ले पाता। टीचर की फेंकी चाक
का टुकड़ा हवा में जमा रहता है। जब कुत्ते खामोश हो जाते हैं तब चपरासी कौर
निगलता है, प्रिंसिपल धीरे धीरे, डरते हुए धुआँ छोड़ता है, चाक का टुकड़ा तड़
से जा कर बदमाश लड़के के गाल पर लगता है और ठंडी साँस छोड़ कर लड़कियाँ गाती
हैं 'वर दे'।
अब अधिकतर खामोश रहता हूँ। दबे पाँवों क्लास में जाता हूँ जैसे चोरी से किसी
पराये घर में घुस रहा हूँ, दो तीन दिनों की दाढ़ी रहती है, आँखों में जलन, एक
थकी, धीमी आवाज में, किसी से नजरें मिलाए बिना, मशीन की मानिंद बोलता रहता
हूँ, गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, लोदी, ये, वो... और पीरियड खत्म होने
पर सिर झुकाए चुपचाप चला आता हूँ। तुम्हारे भाग जाने की खबर इतनी पुरानी हो
चुकी है कि अब मर्दों ने हँसना भी छोड़ दिया है और औरतों ने तरस खाना। कॉलेज
के बाद टाइम पास करने के लिए इधर उधर घूमता रहता हूँ, या तो किले के सुनसान
हिस्से में या स्टेशन पर या रेलवे के यार्ड में पुराने कबाड़ डिब्बों और जंग
खाए इंजनों के बीच। घर जाने के लिए वही शार्ट कट लेता हूँ, जिसके बारे में बस
मुझे पता है। बेशक तुम्हें भी। उसी रेलवे स्टाफ कालोनी में तो हमारे बचपन के
घर थे, आमने सामने। चारदीवारी के एक टूटे हुए हिस्से से भीतर दाखिल होने के
बाद पहले एक पार्क को पार करो, फिर एक पतली खुरदुरी सड़क, फिर रेल की पटरियाँ।
वही रास्ता जिसमें हमारे पुराने घर आते हैं। मेरे घर में अब स्टेशन मास्टर
रहता है, तुम्हारे में शायद कोई गार्ड साहब। प्लेटफार्म की बेंच पर बैठा रहता
हूँ, यूँ ही, घंटों। खाना भी वहीं खा लेता हूँ, मुसाफिरों की धक्का मुक्की के
बीच ठेले पर या बाहर किसी ढाबे में। आती जाती रेलगाड़ियाँ देखता रहता हूँ या
पटरियों पर दूर वह गोलाई जहाँ आने वाली ट्रेन का सिरा नजर आता है - पहले इंजन,
फिर माल डिब्बा, उसके पीछे एक एक कर सारे डिब्बे। बेंच पर बैठा तुम्हें और
सारे बरस, हर दिन, हर लम्हा याद करता, एनेलाइज करता रहता हूँ, जब तक सिर न
चकराने लगे। क्या हर औरत ऐसी ही होती है, सोचता हूँ। फरेबी, महाठगिनी, जहर की
पोटली। जानता हूँ स्त्री विमर्श का जमाना है, ऐसी बातें सोचना गुनाह है, मगर
भला ख्यालों पर किसी का बस चलता है? वे तो अपने आप चले आते हैं और जितना दबाओ
उतनी ही ताकत से। और महान अदाकारा भी ...ग्रेट एक्ट्रेस। हर औरत मीना कुमारी
होती है या स्मिता पाटिल, पूरी की पूरी औरत जात। अपना प्यार सात पर्दो में
छुपा कर रखती है, मगर नफरत उससे भी कहीं गहरे, किसी सूख चुके अंधे कुएँ में
जिसकी तली में साँप रहते हैं। वहीं वह सारे जमाने की नजरों के परे उसे - अपनी
नफरत को - प्यार से पालती, बड़ा करती है। पता नहीं चलता कब उसके दिल में जहर
की बूँद उतर आई, नफरत का परमाणु, इंतकाम का इरादा। वह एक तवील अरसा, उपयुक्त
मौके के इंतजार में उसे छुपा कर रखेगी, इस दौरान एक्टिंग करती रहेगी, हँसती
मुस्कराती, रोजमर्रा के कामों में मसरूफ, मर्द को भुलावे में रखती कि सब कुछ
अपनी जगह दुरुस्त है। फिर नागिन की तरह पलट कर वार करेगी और इसका वक्त और मौका
वही तय करेगी। अपने हाथों से एक दुनिया मटियामेट करेगी और दूसरी की तलाश में
सितंबर या फरवरी के किसी दिन... और इसके बाद न इतिहास वही रहेगा न भूगोल। और
तुम्हारा भागना तो इस तरह था कि कई दिनों तक पता ही नहीं चला। यह इरादा कोई एक
रात में तो नहीं बना होगा, फिर भी कभी न कुछ बताया, न एक लफ्ज कहा। आने जाने
का रिजर्वेशन भी मुझसे ही करवाया, बस एक हफ्ते के लिए। 'मुझे थकान लग रही है।
कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर जाना चाहती हूँ, आई नीड चेंज'। चलते समय, याद आता
है, मैंने मजाक में कुछ कहा था, तुम हँस पड़ी थीं। उस हँसी की स्मृति को अब
जेहन में उलटता पुलटता, विश्लेषित करता रहता हूँ। तुम देर तक हँसती रही थीं,
जितनी देर तक कोई कृत्रिम हँसी नहीं हँस सकता। हमेशा की तरह, झरने जैसी। अगर
वह नकली थी तो एक शानदार अदाकारी थी, मुझे मुगालते में रखने के लिए। मान गए,
मीना कुमारी। अगर असली थी तो उस समय की मनःस्थिति में यह कैसे मुमकिन था जब
तुम हमेशा के लिए घर छोड़ कर जा रही थीं। फिर वह आजाद होने की, मुक्ति की राहत
की एक बेअख्तियार अभिव्यक्ति रही होगी। कौन सोच सकता था, सपने में भी, कि उस
वक्त तुम्हारे दिमाग में कोई जहर पल रहा है। चलने से पहले तुमने एक गिलास पानी
माँगा था। रिक्शे पर हम साथ साथ स्टेशन गए थे। रात का वक्त था, प्लेटफार्म पर
धुआँ था और बहुत पीली, धुँधली रोशनी। ट्रेन बिल्कुल सही समय पर आई थी। सामान
बर्थ के नीचे जमाने के बाद मैंने पूछा था 'टिकट सँभाल कर रखे हैं न?' तुम
खामोश थीं, एक अजीब तरीके से उदास। फिर मैंने पूछा 'कुछ और चाहिए?' तुम फिर
खामोश रहीं। जब मैने कहा, पहुँचते ही फोन कर देना', तब भी तुमने कुछ नहीं कहा।
ट्रेन चलने तक मैं वहीं सामने की बर्थ पर बैठा रहा। तुम्हें अचानक कुछ याद
आया, तुमने पर्स में से एक पर्ची निकाल कर दी, ड्राईक्लीनर की रसीद। 'ये कपड़े
लाकर ध्यान से रख लेना, कल ही'। बीच में तुमने यह भी कहा था, 'घर जल्दी
व्हाइटवाश कराना होगा'। अब भला यह क्या था? जब तुम घर छोड़ कर जा रही थीं
तो...? अब समझ पाता हूँ, वह तुम्हारी अदाकारी का हिस्सा था, एक साइकॅालाजिकल
गेम। दुश्मन को एक झूठी बेफिक्री, तसल्ली, सुकून का एहसास दो और फिर खामोशी से
उसकी पसलियों में छुरा उतार दो। तुम इस कदर चालाक थीं, इतनी शातिर? दगाबाज,
विश्वासघातिनी, झूठ और फरेब का एक ढेर। इंजन के सीटी देने पर मैं उतरा और
खिड़की से देखा, डिब्बे के अँधेरे कोने में तुम्हारी बुझी हुई आँखें। ट्रेन
चलने तक तुम एक टकटकी में मुझे देखती रहीं।
एक सप्ताह के बाद, जिस दिन तुम्हारा वापसी का रिजर्वेशन था, मैंने ही फोन
मिलाया। 'कितने बजे?' वह ट्रेन अक्सर लेट हो जाती थी, कभी कभी बहुत रात गए
पहुँचती थी। शाम का वक्त था, दीवारों और छत से पपड़ियाँ गिर रही थीं जैसे वह
पहाड़ों का आसमान हो, बर्फबारी की शुरुआत हो। फर्श पर पतले महीन रेशों का चूरा
जमा था, जिसे देख कर मेरे मन में भी ख्याल आया कि पुताई जल्दी करानी होगी।
कोने की तिपाई पर तुम्हारी मुस्कराती तसवीर थी। उस पर भी रेशों की पर्त थी।
फोन तुरंत कनेक्ट हुआ था, नंबर मिलाते ही, तत्काल, जैसे तुम इंतजार कर रही थी,
उस तरफ फोन को तकती बैठी थीं। 'ट्रेन कितने बजे पहुँचेगी, कहाँ हो,' मैंने फिर
कहा। 'ट्रेन?' एक बहुत दूर से आती क्षीण आवाज सुनाई दी। 'क्या हुआ, तबियत तो
ठीक है?' मैंने घबरा कर कहा। 'हाँ हाँ' तुमने जल्दी से दिलासा दिया। 'कब
पहुँचोगी? मैं स्टेशन आ जाऊँगा।' अबकी बार उस ओर बहुत लंबी खामोशी थी, ध्यान
देकर सुनो तो आँधियों की आवाजें, काले आकाश की पृष्ठभूमि में तुमने धीमी,
अटकती हुई आवाज में बताया कि तुम वापस नहीं आओगी। हमेशा के लिए घर छोड़ आई हो।
- तुम ट्रेन में नहीं हो? वापसी का रिजर्वेशन था न? मैने पूछा।
- वह अगले ही दिन मैंने कैंसिल करा दिया था। सॉरी, तुम्हें बिना बताए। जब वापस
आना ही नहीं था। तुमने धीरे धीरे रुक रुक कर कहा।
- क्या मतलब?
- वही जो तुमने सुना। तुमने कहा। - रिश्ता खत्म हुआ। तुम फ्री हो, जैसे चाहे
जियो। तुम मेरी जिम्मेदारी से आजाद हो, ओ के? नीलू भी मेरी जिम्मेदारी है, तुम
चिंता मत करना। वह तुमसे मिलने आती रहेगी, या जैसे तय करो। तुम्हारे और
तुम्हारी बेटी के बीच में मैं कभी नहीं आऊँगी। तुम आजाद हो और मैं भी।
- वापस नहीं आओगी? क्या मतलब?
- खत्म। बाय।
- और यहाँ हमारा घर? नौकरी?
- तुम्हारा घर तुम्हारे पास है। नौकरी मैंने छोड़ दी है। दूसरी मिल गई है।
- नौकरी छोड़ दी? इतनी बड़ी बात, मुझे बताया तक नहीं?
- ऑयम सारी लेकिन घर छोड़ने का फैसला पक्का था। बताती तो बेकार आर्गूमेंट्स
होते, माहौल खराब होता। वहाँ जो थोड़े से दिन बचे थे, मैं शांति से बिताना
चाहती थी। तीन महीने पहले नोटिस दिया था। सारे ड्यूज भी क्लियर हो गए हैं।
- मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा। मैंने परेशान स्वर में कहा। - ऐसे थोड़े ही
होता है? क्या कोई फिल्म चल रही है? मैं कल की ट्रेन से आता हूँ। हम बात
करेंगे।
- नहीं कोई फायदा नहीं। मैं मिलूँगी नहीं। जब तक आओगे, मैं नई नौकरी ज्वायन
करने जा चुकी होऊँगी। दूसरे शहर में, दूर।
- कौन सी नौकरी है? कहाँ?
- वही टीचर की। यहाँ से बहुत दूर।
- लेकिन, यह सब अचानक? बिना कुछ बात किए?
- अचानक कुछ नहीं होता। बात करने से क्या होता?
- इतने बड़े फैसले की कोई वजह तो होनी चाहिए। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा।
- बिना वजह कुछ नहीं होता। समझ में न आना... वह तुम्हारी प्राब्लम है।
- लेकिन समझाने की कोशिश तो कर सकती हो। मैंने फोन पर चीख कर कहा। - तुम्हें
यहाँ मेरे साथ... इस जिंदगी में... कुछ प्राब्लम थी तो...।
- प्राब्लम?
- वजह। इतने बड़े फैसले की। हमारी एक शांत, नार्मल लाइफ थी। मुझे याद नहीं आता
मैंने कभी तुम्हें कोई असुविधा दी हो। हमारे बीच कभी छोटा सा झगड़ा भी नहीं
हुआ। हैव आई एवर बीन क्रूअल?
- नहीं, कभी नहीं। तुम दुनिया के सबसे अच्छे पति हो। इसका सर्टिफिकेट मैं लिख
कर दे सकती हूँ।
- तो फिर? वजह तो बताओ, मुझे जानने का हक है।
अब तो याद भी नहीं, मैं क्या क्या कहता रहा। फोन बार-बार कट जाता था। पसीजे
हुए हाथों में टेलीफोन दबोचे, छत से गिरती पपड़ियों के बीच फर्श पर बैठा, पास
में रखे आदमकद आईने में अपनी पस्त छाया देखते हुए मैं बार-बार नंबर मिलाता था।
वजह बताओ, वजह, चिल्लाते हुए। कारण, रीजन। तुमने टूटे-फूटे शब्दों में कुछ
बताया भी लेकिन उस समय मेरी समझ में कुछ नहीं आया। रात्रि की सबसे सुनसान घड़ी
में तुम्हारे आखिरी लफ्ज थे - भूल जाओ। नेवर। वह खेल खत्म हुआ, चेप्टर
क्लोज्ड। सॉरी, इट इज ओवर एंड दिस इज फाइनल। फिनिस्ड, कह दिया न। नहीं, नहीं,
नहीं। एक बार कहने पर बात समझ में नहीं आती क्या?'
वह पूरी रात मैं जागता रहा, एक टकटकी में जलती आँखों से कमरे का अंधकार पीते
हुए। किसी खोह या बंकर या ताबूत या कब्र के भीतर का अँधेरा। जो कुछ तुमने कहा
था, कानों में बजता रहा जैसे किसी सुनसान किले में कुछ फुसफुसाओ तो आवाज एक
शोरगुल बन कर वापस लौट आती है। सुबह होने पर कहीं जाकर एक बेचैन नींद आई, बस
थोड़ी ही देर के लिए। खिड़की के रास्ते धूप सरकती हुई चेहरे पर आई, आँखें फिर
जलने लगीं। मैंने उठने की कोशिश की, पर लगा जैसे एक अंधे कुएँ में गिर रहा
हूँ। मुझे बुखार आ गया था और कमजोरी और सिर में दर्द। बहुत देर के बाद किसी
तरह उठकर टेलीफोन पलंग के पास उठा लाया, फिर से तुम्हारा नंबर डायल किया,
बार-बार। वहाँ तुम्हारे घर का लैंड लाइन भी, तुम्हारे भाई का मोबाइल भी। हर
तरफ सन्नाटा था, ऐसा जो बमबारी में सब कुछ खाक हो जाने के बाद होता होगा। मैं
बदहवास फोन मिलाता रहा। अचानक जैसे मेरे पास तुमसे कहने के लिए बहुत सारी
बातें थीं। रोजमर्रा की आम बातें नहीं जो कहने के साथ ही हवा में घुल जाती
हैं। मुझे वह कहना था जो जीवन में सिर्फ एक बार कहा जाता हैं, सिर्फ किसी एक
से, और ऐसी व्यग्रता के साथ जैसे सब कुछ उसी पर निर्भर करता है।
मैं उठा और भीतर के कमरे की अल्मारी से लैपटाप निकाला। नीलू का लैपटाप जो वह
पिछली बार आने पर छोड़ गई थी। उसकी जरूरत के हिसाब से अब यह पुराना हो गया है,
आउटडेटेड। वही मेल भेजना सिखा गई थी। वह बर्फ की तरह ठंडा था। उसे चार्ज करने
के लिए कॅार्ड लगा कर छोड़ दिया और बिस्तर पर लेटा मन में वो सारी बातें
दोहराता रहा जो तुमसे कहनी थीं। ई-मेल की बार में तुम्हारा नाम लिखते ही आई डी
अपने आप उभर आया। वाह, यह आजकल की टेक्नालॉजी। मगर साथ ही यह भी एहसास हो रहा
था... प्लीज माफ कर दो ऐसा सोचने के लिए, लेकिन महसूस हो रहा था कि तुम ...
तुम ... शायद मर चुकी हो। यह मृतात्मा से वार्तालाप है। वह ठंडी मशीन लैपटाप
नहीं, प्लान्चेट है। मेल न कोई पढ़ेगा, न जवाब आएगा। तुम हमेशा के लिए जा चुकी
हो। मैंने लिखा, कल रात जो बातें हुईं, अब तक कानों में गूँज रही हैं। आज
कॉलेज भी नहीं गया। बुखार है और कमजोरी भी, आँखों के सामने बार बार काला पर्दा
आ रहा है। लेकिन डाक्टर के पास नहीं जा सकता, मेरे लिए तो पानी लेने के लिए
चार कदम जाना भी मुश्किल है। मुझे किस हालत में छोड़ कर तुम कहाँ चली गईं?
कहीं ऐसा होता है? मुझे यकीन नहीं हो रहा कि वे बातें तुमने कहीं। यह सब सच
नहीं, कोई भयानक सपना है। जल्दी से जल्दी वापस आ कर इस सपने को तोड़ दो यार,
बस हो चुका। फोन पर बताओ, अभी, कि कब वापस आओगी। इतने काम पड़े हैं, सबसे पहले
घर व्हाइटवाश कराना है। यह कोई अकेले मेरे बस का है? तुम्हारे कपड़े अभी नहीं
लाया, बुखार के कारण। कल जरूर ले आऊँगा, अगर तबियत ठीक हो जाएगी तो।
कोई जवाब न आना था, न आया। न कोई फोन, न कहीं और से कोई सूचना। इधर से नंबर
मिलाने पर वह हमेशा की तरह खामोश था। सोचते-सोचते थक जाने के बाद अगले दिन फिर
एक मेल लिखता हूँ। तुमने कोई जवाब नहीं दिया, यह जानते हुए भी कि हर पल, सोते
जागते, मुझे उसी का इंतजार है। यहाँ मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा, नमकदानी
कहाँ है, हल्दी कहाँ है। कब तक चाय और बिस्किटों और डबलरोटी पर गुजारा करूँगा।
शीशे में देखता हूँ तो अपने को पहचान नहीं पाता। यह कोई और है जो रेगिस्तानों
के सफर में है, उड़ते बगूलों के बीच। खून की कमी, आँखें धँसी हुई, तीन दिनों
की दाढ़ी। 'दस्त-ओ-सहरा' में, कड़ी धूप में, टीलों के बीच भटकता हुआ कोई
मुसाफिर। तुम इतनी बेमुरव्वत कैसे हो सकती हो? उठाया पर्स और तेज रफ्तार में
बाहर निकल गईं, बिना मुड़ कर देखे। मैं कब तक यह बात पड़ोसियों से, सब लोगों
से छुपा कर रखूँगा। कैसे कहूँगा, मेरी बीवी? जी, वो भाग गई। उनके पास बस दो
तीन वजहें होती हैं, किसी औरत के इस तरह भागने की। दिमाग की सारी कोशिकाएँ,
सारा का सारा गूदा, न्यूरॉन्स, समूचा तंत्रिका तंत्र किसी फिसलते पहिये की तरह
वहीं वहीं लौट कर जाता है भले ही वे कुछ भी कहें, या कुछ भी नहीं। या तो उस
औरत के दिल में दबा कोई पुराना प्यार होता है, या कोई पैरामोर, नया पुराना
प्रच्छन्न प्रेमी, जो उसे भगा ले जाता है। या उसका पति क्रूर होता है,
यातनायें देता है। हर बात पर टोकाटाकी, नुक्स निकालना, अपमान, या फिर जो सबसे
भयानक क्रूरता होती है, साइलेंट ट्रीटमेंट। या फिर उसके पति की मर्दानगी...
लेकिन छोड़ो इस बात को। अधिक से अधिक वे यह सोच पाते हैं कि वह मर्द की छाया
से बाहर आना चाहती थी, उसे अपना खुद का जीवन चाहिए था, अपनी खुद की पहचान। मगर
वह वजह जो तुमने बताई, वह...। मैं वह किसी से कह भी नहीं सकता, उसे न कोई
समझेगा, न यकीन करेगा। इससे बेहतर होता कि तुम किसी आम वजह से ही चली जातीं,
कम से कम मेरा यह काम आसान होता। यार कहीं ऐसा होता है?
हिस्ट्री पढ़ाता हूँ। पिछले दो हजार सालों की सारी कहानियाँ पता हैं, एक एक
किस्सा, एक एक दास्तान। राजे, सुल्तान, शहजादियाँ। उनकी चिम्गोइयाँ और उनके
इश्क - और हम्माम, खुशबुएँ, पानदान। आज तक कितनी शहजादियाँ भागी हैं और किस
तरह, किन रास्तों से, सब जानता हूँ। कोई बैलगाड़ियों पर, पैदल, घोड़ों पर सवार,
पालकियों में, नावों में। सल्तनत ढह गई और बेगमें महलों से निकल कर जंगलों में
भागीं। कोई हमला होने पर रानियाँ और दासियाँ इकट्ठे महलों के नीचे, जमीन के
अंदर, सुरंगों के रास्ते। बहुत सारी इश्क के चक्कर में, आशिक के संग घोड़े पर
सवार, उसे कस कर थामे हुए, और कुछ इल्म की प्यास के चलते। अल्ला ताला की तलाश
या ऐसा ही कुछ। मगर यह वजह जो तुमने बताई, यह सबसे अलग है। उस वजह से आज तक
कोई नहीं भागा। एक भी नहीं। उस वजह को सीने से लगाये बयालीस की उम्र में अपनी
गृहस्थी छोड़ कर चली जाने वाली तुम आज तक की ह्यूमन हिस्ट्री की पहली औरत हो।
प्लीज, मेरी प्यारी बीवी जो दुनिया में न जाने कहाँ जाकर छुप गई हो, अब वापस आ
जाओ। अब पपड़ियाँ पहले से भी ज्यादा गिरने लगी हैं। तुम आओगी तो पहला काम होगा
पूरे घर की पुताई और हर कमरे में डिस्टेंपर। जिस कलर पर तुम उँगली रखोगी, उसी
में। वादा, हर छुट्टी वाले दिन झाड़ू मैं लगाऊँगा और उस दिन का खाना बनाने का
काम भी मेरे जिम्मे होगा। हालाँकि खाना बनाना नहीं आता, लेकिन तुम सिखाओेगी तो
सीख लूँगा। अभी तो भूखा ही रहता हूँ। दिन में कभी कॉलेज की कैंटीन से कुछ
मँगवाता हूँ, कभी बाहर ठेले से। शाम को वहीं, स्टेशन पर, भीड़ में छुप कर,
सबसे नजरें बचाता हुआ, कुछ थोड़ा सा। किसी होटल या ढाबे में जाने पर, या सड़क
पर चलते हुए भी, लगता है सब लोग मुझे ही देख रहे हैं, आपस में फुसफुसा रहे हैं
और अभी हँसते हुए मेरी ओर उगली उठा कर कहेंगे, वो रहा जिला परिषद महाविद्यालय
का हिस्ट्री का मास्टर, जिसकी बीवी उसे छोड़ कर भाग गई।
To : mrinmayi@mail.com
पिछले मेल का भी कोई जवाब नहीं आया। पता नहीं किस गड्ढे में गया। ऐसा मुमकिन
नहीं कि तुमने पढ़ा न हो। अब तो मोबाइल फोन में ही सारी सुविधाएँ मौजूद होती
हैं। धीरे-धीरे स्वीकार करता जा रहा हूँ कि तुम वापस नहीं आओगी। मुझे इसी तरह
'दस्त-ओ-सहरा' में जिंदगी बितानी होगी, दोपहर की सख्त धूप में पटरियों पर दूर
उस मोड़ को ताकते हुए जहाँ आने वाली ट्रेन का इंजन नजर आता है और उसके पीछे एक
एक कर सारे डिब्बे। फिर भी कोशिश करता हूँ, मेरे पास कोई और चारा भी तो नहीं।
क्या तुम्हें अपनी दीवानगी का यकीन दिलाऊँ तो तुम वापस आ जाओगी?
तो सुनो, मैं तो हमेशा से दीवाना था। दीवाना ही जन्मा था।
मुझे सब विस्तार से बताना होगा। ध्यान से सुनो तो तुम्हें भी कुछ भूला हुआ याद
आएगा। याद करने की कोशिश करता हूँ। अब से तकरीबन तीस बरस पहले़...।
एक दस बारह साल की बच्ची का चेहरा याद करने की कोशिश करता हूँ। नहीं, स्मृति
पर बहुत जोर देने पर भी कुछ भी याद नहीं आता सिवाय उसके दाँतों के जो उसके
साँवले चेहरे पर चमकते थे, और आँखें भी जो वह कहीं दूर से आती आवाज सुनती अपने
भाई से फुसफुसा कर कहती थी - खोकन, साँप। वह फुसफुसाहट भी... और आवाज जो तीखी
और नुकीली थी, गुस्सा आने पर माचिस की तीली जैसी, जलने के पहले पल में। वह कोई
खास खूबसूरत नहीं, बहुत मामूली थी, काली भी। काली माई उसका एक नाम था, छोटी
मछली को कंकाल समेत कच्चा चबा जाने के कारण। वैसे उसे सब मुन्नी मुन्नी कहते
थे, उसके घर वाले भी। मुझे यह बहुत खराब लगता था, सस्ता और सड़क छाप। जो भी यह
कहे मैं उसका मुँह नोच लेना चाहता था। मैं उसे मिनी या मिन्नी या मुनमुन कहना
चाहता था, यही कहता भी था, लेकिन मन ही मन। यही नहीं, मैं उससे बहुत सी बातें
कहना चाहता था, और अपने मन की वह खास, सबसे पोशीदा, गुप्त बात भी जो सारी
दुनिया में बस उसी के लिए थी। मैं उसे सात तालों में छुपा कर रखता था। मैं उस
वक्त 12-13 साल का था। उसकी उम्र दो तीन साल कम होगी।
( मेरी गुमशुदा बीवी, क्या तुम्हें भी कुछ याद आ रहा है? )
मैं उससे कभी कुछ नहीं कह पाया। जब भी कहना चाहा, बीच में रेलगाड़ियाँ चली आईं,
उनके काले कलूटे इंजन, और उन पर सवार पूरी की पूरी दुनिया। उसका घर मेरे घर के
बिल्कुल करीब था, एकदम सामने। लेकिन बीच में रेल की चमकती हुई पटरियाँ थीं।
गाड़ियाँ घरों के इतना करीब गुजरती थीं। हमारी बातें उनकी आवाज में गुम हो जाती
थीं। वाक्य पूरा करने के लिए गाड़ी के गुजरने का इंतजार करना होता था, दूसरी
गाड़ी आने से पहले उसे जल्दी जल्दी कह देना होता था। उन दिनों सब कुछ अँधेरे
में होता था, गहरा, घना, काला अँधेरा। घुप अंधकार, जिसमें न कुछ सामने दिखता
था, न पास न दूर, न ऊपर आसमान में, न कहीं नीचे... अंधकार जिसमें एक एक करके
सारे यकीन खत्म हो जाते हैं, तर्क भी काम नहीं करते। उन बहुत पुराने दिनों में
बिजली अभी घरों तक नहीं आई थी। लालटेन बुझने से पहले उसकी रोशनी एक बार उछलती
थी। माचिस या तो मिलती नहीं थी या मिलती थी तो सीली। तेज धड़कते दिलों के साथ
हम रोटी अँधेरे में खाते थे, अँधेरे में ही जूठे बर्तन रसोई में रख आते थे,
मच्छरदानी लगाने में माँ की मदद करते थे, फिर उसमें घुस कर बेहोश सो जाते थे।
मैं और छोटा भाई, नरेश। भीतरी कमरे के कोने में मंदिर में एक ढ़िबरी जलती थी।
उसकी मरती रोशनी में भगवान निरीह लगते थे, डरे सहमे, सारा तेज गायब, आँखें
बुझी हुई। सामने फर्श पर पालथी मार कर बैठी माँ धीमी आवाज में लेकिन जल्दी
जल्दी आरती गाती थी, बाहर बरामदे में वह डरावनी लगती थी जैसे किसी बावड़ी से आ
रही हो, एक डूबती सी आवाज। वह एक भिंची आवाज में अक्सर रोने लगती थी। फिर
खामोश कदमों से बाहर आकर करीब दूसरी मच्छरदानी में अंधकार को तकती लेटी रहती
थी, पिता को याद करती जो उस वक्त न जाने किस जंगल में होते थे, कौन सी नदी के
किनारे। वे रेलवे में पुलों और पुलियाओं के ओवरसियर थे। उन्हें अक्सर रातें
वहीं गुजारनी होती थीं, पुलों के पास, तंबुओं में।
- वहाँ साँप होते होंगे। मैंने एक बार माँ को पिता से कहते सुना था।
- साँप? कहाँ?
- वहीं, जहाँ...। नदी में। झाड़ियों में।
- फालतू बात। तुम क्या सोचती रहती हो?
शीशे जैसी आँखों वाले साँप उन दिनों अक्सर आते थे। बिना पाँव, खामोशी से, घास
में छुपते हुए, रात के कालेपन से एकमेक। मगर कितनी ही खामोशी से आए, माँ को
पता नहीं कैसे, पता चल ही जाता था। वह बहुत दूर से सुन सकती थी, सब कुछ सुन
लेती थी, हवाओं की आवाजें, और हवाओं के संग जो दरवाजों से टकराती थीं, उन
पत्तियों की और झींगुरों की, घुग्घुओं की, पानी की। घर के बहुत पीछे पानी की
टंकी ओवरफ्लो होकर बहने लगती थी तो सबसे पहले उसी को पता चलता था। और गाड़ियों
की आवाजें जबकि अभी वो पिछले स्टेशन पर होंगी, और बरसात की, जो दूर पहाड़ियों
पर हो रही होगी। मगर साँप जो चीटियों की मानिंद खामोश चलते थे, उनके आने की
आवाज भी वह सुन लेती थी, और बहुत दूर से। उस दिन साँप अँधेरा घिरने के बाद आया
था।
- उठ, उठ। माँ ने मच्छरदानी में हम दोनों को जगाया था।
- क्या हुआ? मैं एकदम उठ बैठा।
- साँप। माँ ने बहुत धीमी आवाज में कहा।
- साँप? मैंने अँधेरे में चारों ओर देखा, बिना कुछ समझे।
- शी। माँ ने फुसफुसा कर कहा, जैसे कोई सुन लेगा। मुझे खींचती हुए उसने कहा,
जा, खोकन को बुला कर ला।
- खोकन?
मुझे समझने में कुछ पल लगे। अचानक डर लगने लगा। मैंने कहा - कहाँ है?
- साँप? अभी नाली में है। जल्दी जा।
मैं काँपते पैरों से नीचे उतरा, दबे पाँव। ठंडे फर्श पर अँधेरे के बीच अहिस्ता
चलते हुए दरवाजे तक गया। बाहर नीबू के रंग का पूरा चाँद था जिसकी बीमार रोशनी
में सामने एक बहुत बड़ी मालगाड़ी नजर आई, सोती हुई, कोई ख्वाब देखती हुई। न
इधर का छोर दिखता था, न उधर का। मैं दौड़ता हुआ उसके पास गया, नुकीले खुरदुरे
पत्थरों पर नंगे पाँवों चलता दो डिब्बों के बीच के लिंक के नीचे से पटरी पार
कर गया। फिर भागने लगा, खोकन के घर की तरफ। मैंने पीछे गाड़ी के चलने की आवाज
सुनी, जैसे मेरे छूने से वह जाग गई हो, धीमी रफ्तार में और फिर तेज। मेरे बदन
में एक कँपकँपी दौड़ गई।
खोकन का घर ठीक सामने था। दोनों घरों के दरवाजे खुले हों और पटरियाँ खाली तो
भीतर तक का हाल दीख पड़ता था। खोकन के फादर टिकट कलक्टर थे। वे बंगाली थे,
कलकत्ता से ट्रांसफर होकर आए थे। हर वक्त बंगाल बंगाल करने वाले बंगाली। उनके
घर से थोड़ी देर घूरे पर और सामने मरी हुई मछलियों की आँखें बिखरी रहती थीं,
बहुत सारी छोटी छोटी गोल, खामोश, अँधेरे में चमकती हुई। वे मरने के बाद भी
ताकती रहती थीं, अनझिप और लगातार देखती चली जाती थीं। लगता था वे सब कुछ जानती
हैं, हमारे भीतर बाहर का सारा हाल। मुझे उनसे बहुत डर लगता था, वे इतनी खामोश
होती थीं जैसे खुदाई में निकले पुराने पत्थर होते हैं। मैं सोचता था कौन
उन्हें नाखूनों से नोचता होगा, बटोर कर बाहर फेंकता होगा। उन्हें देखते मेरे
लफ्ज हलक में फँस जाते थे। मैं चीख पड़ता था, आँखें मूँद लेता था।
दरवाजा खुला। सामने खोकन नहीं, उसकी छोटी बहन नजर आई। वही मुन्नी उर्फ काली
माई।
- खोकन कहाँ है? मैंने गाड़ी के गुजरते डिब्बों की गरज के बीच चिल्ला कर कहा।
- साँप आया है।
- कौन? उसने ऊँची आवाज में कहा।
- खोकन। मैंने फिर चीखते हुए कहा। - साँप। साँप। बाबूजी घर में नहीं हैं।
- खोकन नहीं है। उसने कहा। - कोई भी नहीं है।
वह भीतर चली गई। मैं वहीं खड़ा रहा, निरर्थक। लेकिन थोड़ी ही देर में वह फिर
बाहर आई, हाथों में एक भारी भरकम लाठी उठाए। इतनी सी देर में उसने चुन्नी को
कमर पर बाँध लिया था। उसने लाठी मुझे पकड़ाते हुए कहा - चलो।
गाड़ी चली गई थी। पटरियों पर और चारों तरफ गहरा सन्नाटा था। चाँद की पीली रोशनी
में हमने दूर से देखा, माँ और छोटा भाई घर के बाहर इंतजार कर रहे थे, हमारी
दिशा में देखते हुए। वह लालटेन बाहर उठा लाई थी। दरवाजे पर कुंडी लगी थी। घर
में अँधेरा था और उस अँधेरे में एक लंबा काला साँप जो पता नहीं क्या कहर बरपा
कर रहा होगा।
- खोकन कहाँ है? माँ ने कहा।
- खोकन नहीं है। मैंने कहा। - घर में और कोई नहीं है।
- तो किसी और को बुला कर लाना होगा। बहुत बड़ा साँप है। माँ ने भयभीत आवाज में
कहा।
- आंटी आप घबराएँ नहीं। मुन्नी ने कहा। - हम मार देंगे।
- यह बच्चों का काम है? पीछे पीछे, एकदम दूर। मैं किसी को बुला कर लाती हूँ।
माँ घर के पीछे वाली लाइन में गई जहाँ सिगनलमैन रहते थे। छोटा भाई नरेश भी
उसके पीछे। मुन्नी कहती रही, आंटी आप परेशान न हों, अभी साँप दो टुकड़ों में
नजर आएगा, लेकिन वह जा चुकी थी। मेरे रोकते रोकते मुन्नी एक हाथ में लालटेन और
दूसरे में लाठी थामे, देखते ही देखते कुंडी खोल कर भीतर के अँधेरे में चली गई।
फड़फड़ाती लालटेन की मद्धिम रोशनी में सूखी नाली की पूरी लंबाई में एक काली
काया चमकती नजर आई। मैं चीख पड़ा, मेरा दिल इतनी जोर से धड़क रहा था कि बस फट
पड़ेगा। मेरा बदन गर्म था, पसीने में तरबतर। मुन्नी ने साँप के पिछले हिस्से
में लाठी छुआई तो उसमें सिहरन हुई, वह एक कुंडली में सिमटने लगा। जो पहले पूरी
लंबाई में था, धीरे धीरे सिकुड़ते हुए एक कोने में जमा हो गया, कालिख का एक
गलीज ढेर, जिसके एक सिरे पर उसकी आँखें शीशे की तरह चमक रही थीं। वह चौकन्ना
था, फुत्कार रहा था। मुन्नी लाठी मुझे थमाते और लालटेन को जितना मुमकिन हो
उतना पास लाते हुए निर्देश देने लगी - पाँव पीछे, पीछे, काट लेगा, सिर पर,
सीधे सिर पर। वह चिल्ला रही थी। मैं बेहोश होने लगा। साँप को खतरे का अंदाजा
हो चुका था, वह एक झटके में फन फैला कर खड़ा हो गया। उसकी उठी हुई गर्दन और
फैला हुआ फन, ओफ वह इतना भयानक दृश्य था, भयानकतम। वह कोई छोटा मोटा टुच्चा
साँप नहीं, नाग था, नाग देवता, किंग कोबरा, बायोलाजी की भाषा में कहें तो
Ophiophagus Hannah. जहर की एक हहराती हुई नदी। मगर वह नाग देवता था तो मुन्नी
भी तो काली माई थी, ऐसे साँपों में गाँठ लगा कर उनकी माला पहनने वाली। कब उसने
अपनी चुन्नी उतार कर उसके फन पर फेंकी, पता ही नहीं चला। कोबरे ने चुन्नी को
दुश्मन समझ कर उस पर हमला कर दिया, उसे यहाँ वहाँ डँसा, कई बार, और उसमें फँस
गया, वह एक उलझी हुई गाँठ बन गया। - सीधे सिर पर, वह फिर चिल्लाई। मैंने आँखों
के बीच पूरी ताकत से मारा, दो बार, और दूसरी बार वहीं दबाए रहा, खूब कस कर।
उसका बदन छटपटाने लगा, थोड़ी देर में वह शांत हो गया। मैं भी बेहोश हो कर
गिरा, फर्श पर।
पता नहीं कब होश आया। मैं बिस्तर में लेटा था। लालटेन की रोशनी मेरे चेहरे पर
थी और पीछे अँधेरे में उसका चेहरा था। - मर गया, उसने कहा, या कुछ इससे मिलता
जुलता। मैं एक कँपकँपी को भीतर भींचने की कोशिश कर रहा था। उस घड़ी लालटेन की
रोशनी और रात्रि के तारों की बैकग्राउंड में मुन्नी का चेहरा देखते हुए मैंने
जान लिया कि वही थी जिसके साथ मुझे सारा जीवन बिताना था। दुनिया का सबसे
खूबसूरत चेहरा, एक सम्मोहित कर देने वाली ब्लैक ब्यूटी। उसी समय यह जीवन उसके
नाम कर दिया। चेहरे पर अपार चिंता लिए वह मेरी धड़कनों की आवाज सुनने करीब आई
तो मैंने उसे कस कर बाँहों में भींच लिया, उस वक्त तक जब कँपकँपी धीरे धीरे
शांत हो गई। उसने कोई विरोध नहीं किया। उसने सोचा होगा कि मैं बेहोश हूँ। मैं
मन ही मन कहता रहा, मुन्नी मुझे छोड़कर मत जाना। कभी नहीं। हमेशा मेरे साथ
रहना। मुझे साँपों से डर लगता है। सपने में भी साँप आते हैं।
प्रिय मृण्मयी, क्या तुम्हें कुछ याद आता है? तुम्हारे पिता ने भी चुन कर क्या
ठेठ बंगाली नाम दिया था तुम्हें जिसका यहाँ न कोई मतलब जानता था, न उच्चारण।
सब लोग तुम्हें मुन्नी कहते थे या काली माई, और मैं कहता था मन ही मन - मिनी
या मिन्नी या मुनमुन। सारी जिंदगी तुम यही समझती रहीं कि मैं बेहोश था। वह
बेहोशी की एक अनजानी बेअख्तियार हरकत थी। नहीं यार मैं पूरे होश में था। जब
इश्क की पहली बूँद दिल में उतरे उस वक्त कोई बेहोश हो तो उस शख्स पर भी लानत
और उस इश्क पर भी। बस मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने देना चाहता था। जाने दिया तो
तुम गुम हो जाओगी। मेरा बस चलता तो तुम्हें कहीं कैद कर लेता, किसी किले की
किसी मीनार में और नीचे एक पहरेदार बिठाता हाथों में एक नंगी तलवार लिए। अब यह
बात सुन कर अपना स्त्री विमर्श मत दोहराने लगना। बाद में हम दोनों उस मरे हुए
नाग को लाठी पर उठा कर पीछे पानी की टंकी के पास पटरियों के किनारे ले गए थे।
मैंने मिट्टी का तेल छिड़का था, तुमने तीली जलाई थी। चट चट की आवाज ने मेरे
बचपन के उस मासूम, पहले, अकेले इश्क पर मोहर लगाई।
डियर मुन्नी उर्फ काली माई, नहीं तुम्हें असली नाम से ही पुकारूँगा, मृण्मयी,
अब तुम्हें मेरी दीवानगी का यकीन हुआ न? अब लौट आओ वापस।
To - mrinmayi@mail.com
लैपटाप आन करता हूँ तो सामने मेरे ही लफ्ज मुह चिढ़ाते हैं। पिछले मेल का भी
कोई जवाब नहीं आया। मेरे मन का एक हिस्सा यकीन करने लगा है कि तुम अब हो ही
नहीं। कहीं किसी पोटली में हड्डियों का ढेर हो या एक मुट्ठी राख, श्मशान के
बगूलों में आसमान तक उड़ती हुई। फिर भी रोज सुबह उठने पर मेरा पहला काम होता
है लैपटाप आन कर मेल के आइकन को क्लिक करना, और हर दोपहर सवा तीन के आसपास साफ
सुथरे कपड़ों में स्टेशन जाने के लिए घर से निकलना। अब जीवन में यही बाकी बचा
है। बरसों पर बरस जमा होते जाएँगे, मेरे बालों में राख भरती जाएगी, कंधे झुकते
जाएँगे, फिर भी छड़ी के सहारे चलता हुआ हर रोज स्टेशन जाऊँगा, तीन बजकर चालीस
मिनट पर प्लेटफार्म पर खड़ा रहूँगा। तुम्हारा वापसी का रिजर्वेशन जिस गाड़ी
में था, उसके आने का वक्त यही है। कभी वह राइट टाइम आती है, कभी घंटों की देरी
से। पटरियों पर बहुत दूर उस गोलाई को ताकता रहूँगा जहाँ पहले इंजन नजर आता है,
फिर माल डिब्बा, फिर एक एक कर सारे डिब्बे। एक एक डिब्बे में झाँकूँगा या
एक्जिट गेट के पास खड़ा रहूँगा, हर शख्स को पहचानने की कोशिश करता। फिर उसी
तरह छड़ी के सहारे इस कमरे में वापस लौट आऊँगा जहाँ पपड़ियाँ ही पपड़ियाँ हैं।
क्या तुमने ऐसा सोचा कि पिछले मेल में मैंने जो लिखा, वह महज एक गढ़ा हुआ
किस्सा था, तुम्हें बहलाने के लिए? या शायद यह कि ऐसा ही दीवानावार इश्क था,
बचपन से ही, जैसा किताबों में होता है या फिल्मों में या ग्रेट प्रेम कहानियों
में, तो कभी कहा क्यों नहीं। एक बार भी। दीवानगी दिल में दबी रही और सारी
जिंदगी किसी आदत या ड्यूटी जैसे प्यार में गुजर गई। 'मैकेनिकल' कहा था तुमने।
फर्ज अदायगी जैसा मशीनी प्यार, आई लव यू का एक घिसा हुआ रिकार्ड और जिस तरह
कारखाने में उत्पादन होता है... बच्चों का दुनिया में आना। असेंबली लाइन
प्रोडक्शन। हमारी एक ही बेटी है, वह एक अलग बात है। अकेले घर में तुम्हारे
लफ्जों को, वो जो तुमने उस आखिरी बातचीत में कहे थे, एक एक कर जोड़ता हूँ तो
ऐसा ही कुछ समझ में आता है। वह दीवानगी तुम्हारे ही लिए थी डियर मृण्मयी, मुझे
उसे अपने पास रख कर क्या करना था। मगर हर बार रेलगाड़ियों पर सवार दुनिया बीच
में आती रही।
छुटपन में ही दुनिया समझ में आने लगी थी, उसकी असलियत, उसका आगा पीछा, एक एक
रग। सच्चाई धीरे धीरे सामने आई और फिर दुनिया पहले जैसी नहीं रही। धीरे-धीरे
हम अक्ल के पुतले हो गए, सब समझने लगे, हर हरकत, हरेक इशारा, हर चीज का मतलब।
बड़े लोग बच्चा समझते रहे, बेअक्ल या बुद्धू, मगर हमें सारी दास्तान समझ में
आने लगी। उन्हीं लोगों ने मेरी दीवानगी की धज्जियाँ उड़ाईं। उनमें हमारे स्कूल
का एक मास्टर था, और मेरा बाप भी, और जी कड़ा करके सुनो, हर वक्त बंगाल बंगाल
करने वाला तुम्हारा बाप भी। वह एक बरसाती, अँधेरी दोपहर थी जब पहली बार सच्चाई
की झलक मिली। उस दिन सोचा था कि मुन्नी से अपने दिल की बात कह दूँगा, साफ साफ।
हिम्मत करके कह डालूँगा, जो होगा, देखा जाएगा। वे सारी बातें जो साँप मारने की
रात में नहीं कह सका था, उन्हें ही दिन के उजाले में कहना था। स्कूल रेलवे की
पटरियों के पार था, आती जाती गाड़ियों का ख्याल करते हुए पटरियों को तेजी से
भाग कर पार करना होता था। आखिरी लाइन पर अक्सर कोई खामोश मालगाड़ी खड़ी रहती
थी। या तो बहुत दूर चलकर गाड़ी के इस या उस छोर पर जा कर लाइन पार करो या
डिब्बों के बीच में से या नीचे से। मेरे पैर में चोट लगी थी। छुट्टी होने पर
गेट के बाहर बोगेनविलिया की क्यारी के पास खड़ा रहा, अमरूदों के झुरमुट तले।
मुन्नी की छुट्टी बहुत देर में हुई, उसे स्कूल के बाद म्यूजिक की क्लास अलग से
अटैंड करनी हेाती थी। छुट्टी होने पर ऊपर आसमान में बादलों को देखती वह तेजी
से सामने से निकल गई, बिना मुझे देखे। मैं बस्ता पीठ पर लादे गीली जमीन पर
पैरों के निशान बनाता धीरे धीरे लाइनों की ओर बढ़ने लगा। मैं अकेला छूट गया था।
पटरियों तक पहुँचते बारिश होने लगी। पहली पटरी पर मालगाड़ी के डिब्बे भीग रहे
थे। वे बहुत दिनों से वहीं खड़े थे, न कहीं आते न जाते। बरसात से बचने के लिए
क्या करता, उसी मालगाड़ी में चढ़ गया, गार्ड साहब बाले खाली डिब्बे में, किसी
तरह लंगड़ाते हुए। छत पर बारिश के थपेड़ों की आवाज थी मगर भीतर वह खुष्क और
गरम और उदास था। मैं कोने में बेंच पर बैठ गया। बाहर काली दोपहरी थी। मेरे
भीतर रुलाई उमड़ती आ रही थी।
एक बहुत जोर का धक्का लगा, गाड़ी के दूसरे छोर से धक्के की एक धमाके जैसी आवाज
पहले से आखिरी डिब्बे तक दौड़ती आई। उस लावारिस गाड़ी को उसी वक्त वहाँ से
ठेला जाना था। ट्रेन चलने लगी। मैं खाली डिब्बे में चीख रहा था। ट्रेन कहाँ
लिए जा रही थी। मैं वापस कैसे जाऊँगा। मेरी माँ और पिताजी और छोटा भाई... लगा
कि अब मैं उन्हें कभी नहीं देख सकूँगा। सख्त, बेगाने, पथरीले पत्थरों के बीच
खाली ट्रेन, जिसका मैं अकेला यात्री था, पता नहीं कितनी देर चलती रही। अब
जानता हूँ कि वह दूरी ज्यादा से ज्यादा पाँच या सात कि.मी. रही होगी, इससे
अधिक नहीं... यह एक रोजमर्रा की आम कवायद थी, पटरियों को खाली करने के लिए उन
डिब्बों को यार्ड तक ले जाने, वहीं छोड़ देने की। मगर बचपन में दूरी का, वक्त
का, ऊँचाई गहराई और क्षेत्रफल का बोध वही थोड़े ही होता है जो बड़े होने पर।
इसीलिए जब कोई एक मुद्दत के बाद बचपन की जगहों पर वापस जाता है, लगता है किसी
ने मंतर मार कर मकानों और रास्तों और मैदानों को मिनियेचर में बदल दिया है।
गाड़ी अनंत समय चलती रही, सैकड़ों, शायद हजारों कि.मी.। वह जहाँ रुकी, वह कोई
दूसरा मुल्क या महाद्वीप या दूसरी दुनिया थी। जिस दुनिया में अब तक रहता आया
था, यह उसका पिछला हिस्सा था, बैकयार्ड या दूसरी सतह। वहाँ जैसे कमीज की तरह
दुनिया पलट गई थी। वहाँ अनंत पटरियाँ थीं, अनगिनत लावारिस डिब्बे जो हमेशा
वहीं खड़े थे, वहीं रहेंगे। और एक अटल, प्राचीन खामोशी थी, गहरे अँधेरे में
डूबी हुई। वहाँ आकाश नहीं था, बहुत ऊँचाई पर छत थी। मैं किसी तरह नीचे उतरा और
बहुत दूर, गाड़ी के दूसरे सिरे पर भाप के बादलों में इंजन को जाते देखा। मैं
वहाँ के बियावान में बिल्कुल अकेला था।
वहाँ गाड़ियों के पुराने, बदरंग डिब्बे ही डिब्बे थे। पटरियाँ ही पटरियाँ।
चक्के, लोहे के एंगल, तारें, तालियाँ। कबाड़ हर तरह का। मीलों तक वहाँ कोई न
था जो मेरा रोना सुनता। मैं भटकता रहा, एक रुलाई को भीतर भींचे। मुझे बहुत तेज
भूख भी लग रही थी। सबसे पीछे की लाइनों पर सवारी गाड़ी के बदरंग, टेढ़े मेड़े,
पुराने डिब्बे थे, जो शायद एक्सीडेंट के शिकार हुए होंगे। उन्हें अब हमेशा
वहीं रहना था या कट कट कर कबाड़ियों के पास जाना था या मालगाड़ियों में लदकर फिर
से वापस डिब्बों के कारखानों में। वहाँ अँधेरा और भी गाढ़ा था। डिब्बों के
पहिये वहाँ ऊँची घासों में छिप गए थे। कुछ बेलें जमीन से उठती उनके भीतर तक
चली गई थी।
एक डिब्बे के सामने खंभे से टिकी एक साइकिल खड़ी थी।
मैंने दूर से उसे देखा, तेज कदमों से लंगड़ाता हुआ पटरियाँ पार करके उसके पास
चला आया। लाल रंग की वह नई, चमकती साइकिल कुछ पहचानी सी लगी। कौन है, किसकी
साइकिल है, मैंने सोचा। मैं बरसों से उस जजीरे में अकेला था, कब से किसी इनसान
की सूरत देखने को तरस रहा था। कोई भी हो, मैं इतना अकेला था कि उसके गले लग
जाना चाहता था, छूना, चूमना चाहता था। गले लगूँगा और रो पड़ूँगा। मेरे भीतर वह
कातर, हताश प्रेम उमड़ रहा था जो सिर्फ एक तन्हा शख्स कर सकता है, अपने ही
जैसे किसी दूसरे आदमी से। किसी सुनसान जगह बरसों से अकेला शख्स, जिसने इस
दौरान कभी आईना भी न देखा हो। फिर किसी दिन कोई नजर आता है और उसके चेहरे में
वह अपनी भूली हुई शक्ल पहचान पाता है। कोई भिखारी ही क्यों न हो, गंदा और
मैला। कोई नजर नहीं आया। मैंने साइकिल की घंटी बजाई... टन टन। एक बार, दो बार।
यार्ड के सन्नाटे में वह आवाज एक गूँज के रूप में मुझ तक वापस आती रही।
उन टूटे फूटे डिब्बों में से एक का दरवाजा खुला। एक आदमी की धुँधली छाया नजर
आई।
- कौन है? वह वहीं से चिल्लाया।
मैं उसकी ओर देखता हुआ चुपचाप खड़ा रहा।
वह हत्था पकड़ कर धीरे धीरे नीचे उतरा। फिर तेजी से चलता हुआ मेरी तरफ आने
लगा। जैसे जैसे करीब आया, उसके चेहरे की लकीरें साफ होती गईं। वह पहचाना सा
लगा। पास आने पर मैंने उसे पूरी तरह पहचान लिया और उसने भी मुझे। वह ख्यालीराम
था, स्कूल में पीटी टीचर। उसी सफेद कमीज और चौड़े बक्कल वाली बेल्ट बांधे खाकी
रंग की पैंट में जिसमें वह पीटी कराते हुए इतना रुआबदार नजर आता था। जहाँ किसी
ने गलती की कि उसने चूतड़ पर सट से संटी मारी। मगर इस वक्त उसकी वर्दी अस्त
व्यस्त थी। वह करीब आया तो एक मरती सी, पहचानी सी बू आई, वैसी ही या उससे
मिलती जुलती जो पिता के जिस्म और कपड़ों से आती थी जब वह कई दिनों के बाद देर
रात पुलों से वापस आते थे।
- तू? उसने विस्फारित नेत्रों से मुझे देखते हुए कहा।
मैं खामोश रहा।
उसके पीछे दूर उसी डिब्बे में दरवाजे पर एक औरत नजर आई। ख्यालीराम का चेहरा
सफेद था, घबराया सा वह कभी उस औरत को देखता था, कभी मुझे। वह पास आती गई और
उसे भी मैंने पहचान लिया। उसका पति स्टेशन पर यात्रियों को पानी पिलाता था। वह
कई महीनों से बीमार था। उसकी जगह अब वही औरत प्याऊ में बैठती थी।
- क्या हुआ? उस औरत ने दूर से एक कमजोर आवाज में कहा।
- कुछ नहीं। तू जा। ख्यालीराम ने कहा।
- जाऊँ? औरत ने अनिश्चित आवाज में कहा।
- हाँ, निकल ले।
औरत फिर भी खड़ी रही तो ख्यालीराम ने भड़क कर कहा - चल भाग साली, पैसे तो मिल
गए न।
उसका चेहरा उतरा हुआ था। कंधे किसी बीमार आदमी की तरह झुके हुए थे। वह ऊँचा
आलीशान बेरहम शख्स जो कड़क आवाज से विद्यार्थियों का पेशाब निकाल देता था, इस
वक्त कितना निरीह नजर आ रहा था। वह गलती करने वाले को धूप में खड़ा कर देता
था। मुझे ध्यान आया एक सजायाफ्ता लड़का गश खाकर गिर पड़ा था तो वह दूर से
चिल्लाया था, पड़ा रहने दो साले को, और फिर और भी ऊँची आवाज में, स्साले हैंड
प्रेक्टिस करेंगे तो स्टेमिना कहाँ से आएगा... और हम सब यह सुन कर सहम गए थे,
इसलिए कि हममें से कौन था जो हैंड प्रेक्टिस नहीं करता था। कुछ उस्ताद थे, कुछ
नवोदित और कुछ तो बिल्कुल धार्मिक भाव से। वही शख्स, इस वक्त लगता था जैसे फूस
या भूसे का बना हो। कहीं पर भी एक हल्का सा मुक्का मारो, उसमें छेद हो जाएगा,
भूसा एक धार में नीचे गिरता जाएगा, थोड़ी ही देर में एक ढेर नजर आएगा, जिसके
ऊपर उसकी चिथड़े जैसी खाल पड़ी होगी।
औरत थोड़ी देर असमंजस में खड़ी हमारी ओर देखती रही, फिर मुड़ कर धीरे धीरे
डिब्बे के पीछे चली गई। ख्यालीराम ने मुझसे कहा - तुझे हेड मास्टर ने भेजा है?
- हेड मास्टर? क्यों? नहीं तो। मैंने कहा।
वह करीब चला आया। - सच बता, उसने कहा।
- हाँ, सच। मुझे किसी ने नहीं भेजा। मैं तो...
उसने साइकिल उठाई, मुझसे बस्ता लेकर कैरियर में लगाया। यार्ड से बाहर तक जाने
वाली एक पतली पगडंडी पर हम पैदल चलने लगे। वह साइकिल धकेलता चल रहा था और मैं
उसके पीछे।
- हेड मास्टर साला दुश्मन है न। उसने कहा। - वह मेरी नौकरी खाना चाहता है।
उसने जासूस छोड़ रखे हैं। मेरी जगह अपने साले को या किसी रिश्तेदार को
रखवाएगा। बेटा, तू किसी से कहेगा तो नहीं न?
- क्या? मैंने बिना कुछ समझे कहा।
- यही, जो तूने देखा।
लौटते हुए वह साइकिल चला रहा था, विचारमग्न। मैं पीछे कैरियर पर बैठा था।
- बेटा किसी को नहीं बताएगा न। उसने फिर कहा।
- नहीं, किसी को नहीं।
- बताएगा तो मेरी नौकरी चली जाएगी। हेडमास्टर पीछे पड़ा हुआ है। वह पंडित है
न। मैं राजपूत।
उसकी बात कौन सुन रहा था। मुझे सब कुछ बहुत अजीब, डरावना लगने लगा। जैसे मेरी
जानी पहचानी दुनिया का छिलका उतर गया हो, यह नीचे से कोई और पर्त निकल आई, बस
सतह से दो इंच नीचे। यहाँ चीजें उलट थीं, मायने अलग थे। मुझे हर चीज पर शक
होने लगा। साइकिल पता नहीं कब तक और कौन से रास्तों पर चलती रही। उस वक्त रात
हो चुकी थी तब उसने मुझे कालोनी के गेट पर छोड़ा। मैं अँधेरे में भी देख सकता
था, उसका चेहरा अभी तक सफेद था। बिल्कुल पक्का करने के लिए एक आखिरी कोशिश की
तरह उसने एक बार फिर कहा, मेरे हाथ को अपनी हथेलियों में भींचते, विनती करते
हुए - बेटा, नौकरी चली जाएगी। बहन की शादी करनी है। किसी को मत बतइयो, समझा
बेटा, भूल के भी। किसी को नहीं। उसकी आवाज काँप रही थी। उसकी पसीजी हुई
हथेलियों से मैंने अपना हाथ खींचा, सिर हिलाया। वह झुके हुए कंधों से साइकिल
चलाता हुआ अँधेरे में विलीन हो गया। मगर मुझे उसकी नौकरी की परवाह नहीं थी। उस
शख्स ने मेरी दीवानगी का खून कर दिया था। रास्ते में तुम्हारा घर पड़ा जहाँ
शाम की लालटेन जल चुकी थी, खिड़कियों से ठाकुर साहब की बड़ी-बड़ी बुद्धमान मगर
उदास आँखों तले रवींद्र संगीत बाहर तक बहता आ रहा था। तुम अपने रोज के रियाज
पर बैठ चुकी थी। उस वक्त यह ख्याल दूर का जान पड़ा कि मैं तुम्हारे बिना नहीं
रह सकता। पहले मुझे इस दुनिया के बारे में सोचना था जो हमारे दरम्यान आ गई थी।
जातियाँ, समाज, मर्द और औरतें। उस वक्त वह म्यूजिक भी कानों को एक असहनीय शोर
जैसा महसूस हुआ।
प्यारी मृण्मयी, इस दुनिया में कुछ भी वैक्यूम से नहीं गुजरता, चाहे वह
रवींद्र संगीत हो या बचपन का दीवाना प्यार। वह इसी दुनिया के रास्तों से, यहीं
की आबोहवा में से गुजरता है। 'मैं तुमसे प्यार करता हूँ' इन लफ्जों को
तुम्हारे पास तक जाने के लिए भी एक रास्ता चाहिए। वहाँ उनकी मुलाकात झूठों से
होगी तो उनसे गुजर कर तुम तक पहुँचते क्या वे भी वही नहीं हो जाएँगे? इन
लफ्जों को कहने का वक्त शायद अभी नहीं आया। लेकिन यह सब तो मैं अब सोच रहा
हूँ। उस वक्त तो केवल सहम गया था। उस शख्स ने मेरी दीवानगी का खून कर दिया था।
To - mrinmayi@mail.com
मुझे उम्मीद नहीं थी कि कोई जवाब आएगा और वही हुआ। तुम्हारी जमी हुई बेरहम
खामोशी अब बर्फ की तरह ठंडी है और पत्थर की तरह सख्त। मुझे नहीं पता कि मेरे
लफ्ज तुम तक पहुँचते हैं या कहीं रास्ते में गुम हो जाते हें। यह भी नहीं पता
कि तुम कहीं हो या नहीं, जमा हुआ खून हो, हड्डी हो, कोयला हो, राख हो, धुआँ
हो। फिर भी कल जो बात शुरू की, मुझे उसे पूरा करना होगा। यह कहानी मानेगी
नहीं, वह अपने अंजाम की तरफ जाना चाहती है, जैसे दुनिया की हर कहानी, कोई भी
कहानी। उसे शुरू कोई और करता है लेकिन अपना खात्मा वह खुद करती है, लेखक को
जबड़े में जकड़ कर जबरन अपने को लिखवाती है, अपने आप। उस दिन स्कूल से बहुत
देर से वापस आया था। रेल की पटरियों से पहले ही, मैंने देखा, दूर तक बनजारों
के तंबू उग आए थे। उस सुनसान मैदान में अचानक, देखते ही देखते, एक शहर आबाद हो
गया था। उस शहर में उनके घर थे, और बाजार, और दुकानें, खेलने के मैदान। मैं उस
शहर के भीतर चला गया। वहाँ तंबुओं के बीच बनजारनें ढोल बजा रही थीं। मुझे उस
दिन लौटने की कोई जल्दी नहीं थी, घर की चाभी मेरी जेब में थी। माँ उस दिन सुबह
ही बस पकड़ कर भुवाली चली गई थी और छोटा भाई भी उसके साथ। मेरी एक मुरादाबाद
में रहने वाली मौसी को तपेदिक हो गई थी। वह कई महीनों से सेनेटोरियम में थी और
अभी पता नहीं कितना और रहना था। हर महीने माँ एक बार उसे देखने जाती थी।
पिताजी हमेशा की तरह पुलों के पास थे, नदी के किनारे। मैं बंजारनों को देखता
सुनता वहीं खड़ा रहा, इतनी देर कि कब दोपहर शाम में बदल गई, फिर आसमान काला
पड़ गया, तारे निकल आए, कुछ पता ही नहीं चला। उन्होंने जैसे मुझे सम्मोहित कर
लिया था। अपने काले कपड़ों और बड़े बड़े गुदनों, लोहे और पीतल के गहनों और रंग
बिरंगे पत्थरों की मालाओं में ढोल बजाती, किसी अजनबी जुबान लेकिन ऊँची आवाज
में गाती बनजारनें मुझे एक साथ भयानक और खूबसूरत लगीं - खूबसूरती का विस्फोट।
आग की लपटों में उनके चेहरे जल बुझ रहे थे, पीछे धुएँ के बादलों में उनके तंबू
और गाड़ियाँ थीं। वह नजारा देखते और उनका संगीत सुनते हुए मेरे दिल में भी ढोल
बजाने की एक पागल इच्छा उमगने लगी, इस तरह कि उसकी आवाज आकाश तक, तारों तक
जाए। देह नाकाफी लगने लगी, भीतर कुछ छूटने, मुक्त होने के लिए छटपटाने लगा।
रक्त गर्म होने लगा, फिर गुनगुना, और चरम पर पहुँच कर लगा जैसे उबल रहा है।
भावनाओं का ऐसा ज्वार और भीतर रक्त का उबाल लिए हुए, डियर गृण्मयी, उस घड़ी
मुझे शिद्दत से किसका ख्याल आया होगा?
मुझे तुमसे फौरन मिलना था। तुम्हारे घर जाना था और सामने पड़ते ही, बिना परवाह
किए कि कौन सुन रहा है, वह क्या सोचेगा, तुम्हारा हाथ पकड़ना था, सब कुछ कह
देना था। मैं अँधेरे में धीरे धीरे घर की ओर चलने लगा। इतना घना अंधकार था कि
न कुछ सामने दिखता था, न पीछे, न पास न दूर, न ऊपर आसमान में, न कहीं नीचे,
मुझे रास्ता टटोलना पड़ रहा था और साँसें तेज चल रही थीं। मै मन ही मन दोहरा
भी रहा था जो उस रात हिम्मत करके, बिना अंजाम सोचे, एकबारगी तुमसे कह देना था
- मुन्नी, नहीं, मिनी, नहीं नहीं मुनमुन, तुम हमेशा मेरे साथ रहना। मेरे पास,
हमेशा, टिल इटर्निटी। उस वक्त तक जब तक वक्त का वजूद है। मैं तुमसे बहुत
बहुत...। बस यही सब, और क्या। यह मत सोचो कि उस छोटी सी उम्र में मुझे
इटर्निटी के मायने क्या पता रहे होंगे। उस अँधेरे में तुम्हारी खिड़की से आती
लालटेन की रोशनी, वह जैसे एक लाइट हाउस थी जिसकी रोशनी में सावधानी से दोनों
तरफ देखते हुए मुझे पटरियों का समंदर पार करना था। मुझे घर पहुँच कर ताला
खोलना था, लालटेन खुद जलानी थी, खाना खुद गर्म करना था, मच्छरदानी खुद लगानी
थी। मगर अपने घर जाने से पहले मुझे तुम्हारे घर जाना था, तुमसे मिलना था और
तुम्हारे हाथ पकड़ कर अपनी जिंदगी की वह सबसे जरूरी बात कहनी थी जो केवल
तुम्हारे लिए थी। बस कह देना था, जो होगा, देखा जाएगा।
पटरियों के पास पहुँचा ही था कि दूसरे छोर से आवाज सुनाई दी - कौन? अरुण?
मैं ठिठक कर खड़ा हो गया। दूर से आती टार्च की रोशनी मेरे मुँह पर पड़ी।
- इतनी देर कैसे हो गई? कहते हुए वह छाया पटरियाँ पार कर पास आती दिखाई दी। -
हम कब से इंतजार कर रहे हैं। दोपहर से रात हो गई। स्कूल भी गए थे। थोड़ी देर
और न आते तो अब पुलिस के पास...
- मेरा इंतजार?
- तो और किसका? चलो, तुम्हारे बाबूजी के पास चलना है। आज की रात वहीं सोना है।
- क्यों?
- क्यों क्या? आज तुम्हारे घर में कौन है? अकेले डर नहीं लगेगा?
उसकी आवाज से मैं अब तक उसे पहचान चुका था। वह पिताजी के साथ कभी कभी घर आने
वाला ठेकेदार था, उनके पीछे पीछे उनका बैग या कोई सामान या सब्जियों का थैला
उठाए। अब तक आँखें अँधेरे की आदी हो चुकी थीं। सबसे दूर की पटरी पर पिताजी की
ट्राली खड़ी नजर आई जिस पर लाल रंग की रेग्जीन की छतरी थी। पास में दो पैटमैन
खड़े थे।
- नहीं, मैं घर जाऊँगा। मैंने एक कमजोर आवाज में कहा।
- घर? वहाँ क्या है? चलो तुम्हारे बाबू जी ने भेजा है। पहले ही इतनी देर हो
गई।
मुन्नी, नहीं, सॉरी, मृण्मयी, मुझे उस रात तुम्हारे घर आना था। एकदम पक्का,
तुम्हें अपनी सारी दीवानगी देने जो सिर्फ तुम्हारे लिए थी, तुम्हारी अमानत थी।
उस ठेकेदार को उसी वक्त नमूदार होना था। हम ट्राली में बैठ गए। ठेकेदार और मैं
अगल बगल, और मेरा बस्ता पीछे की सीट पर। पैटमैनों ने दोनों तरफ के हैंडल पकड़
कर ट्राली को धक्का दिया, वह पटरी पर सरकने लगी। तुम्हारा घर, खिड़की से आती
लालटेन की रोशनी, उस रोशनी में नजर आते धुँधले से गुरुदेव, खिड़की से ही सुनाई
देता रवींद्र संगीत, मछलियों की आँखें और काँटे, और उन सबके संग, डियर वाइफ,
मेरा पागलों जैसा इश्क और दीवानगी, सब देखते ही देखते बहुत पीछे छूट गए।
ट्राली अँधेरे में चलती रही, खट खट खट। जब वह धीमी पड़ती थी, पैटमैन उसके पीछे
पटरी पर धक्का देते दूर तक भागते थे, फिर उछल कर बैठ जाते थे। ठेकेदार अकड़कर
महाराजाधिराज की तरह बैठा था, उसी अंदाज में जैसे पिताजी बैठते थे। फर्क यही
था कि वह खाकी हैट लगाते थे और यह तुर्रेदार पगड़ी में था। उसने शनील का
कुर्ता पहन रखा था, कहीं से जरा सी रोशनी आने पर लश्कारे मारता हुआ। कितने
स्टेशन, जंगल, नदियाँ, पुल गुजर गए। पता नहीं कितना समय बीत गया। जंगलों से छन
कर आती ठंडी ऑक्सीजन पीते हुए, ट्राली के हिचकोलों में, उसकी खट खट खटाक की
अविराम लोरी के बीच मुझे नींद आने लगी।
पता नहीं कब आँख खुली। मैंने अपने को एक तंबू में पाया, आरामदेह बिस्तर पर। न
जाने कितनी देर बाद, रात की किस घड़ी में, ट्राली वर्क साइट पर पहुँची होगी।
मैं गहरी नींद में रहा होऊँगा। मुझे जगाए बिना दोनों पैटमैनों ने मुझे मिलकर
उठाया होगा, पीछे पीछे ठेकेदार मेरा बस्ता उठाकर चलता आया होगा। उन घनघोर रात
में वहाँ सिर्फ मशालों की रोशनी थी और इक्का दुक्का लालटेनें। जंगल के बीच
वहाँ एक बस्ती आबाद थी। हहराती नदी के किनारे किनारे चलते हुए, अधबने पुल के
करीब ही, वे वहाँ के सबसे बड़े साहब यानी पिताजी के तंबू में पहुँचे होंगे,
कहा होगा, साहब, छोटे सरकार तो सो गए। पिताजी ने टार्च की रोशनी में मेरा
मुआयना किया होगा, फिर भीतरी 'कमरे' के बिस्तर की ओर इशारा किया होगा। अपनी
निगरानी में मुझे ध्यान से बिस्तर पर लिटाया होगा और तकिया ठीक से लगाने,
मच्छरदानी को हर तरफ ध्यान से बंद करने के बाद एक खलासी से कहा होगा, इनका
खाना ढक कर रख दो। रात में उठेंगे तो खा लेंगे। फिर वे पास के अपने तंबू में
लालटेन की रोशनी तेज कर पुल की ड्राइंग और दूरबीन से उस अधबने पुल को देखने
में व्यस्त हो गए होंगे। मेरी नींद बहुत रात गए ढोलक की आवाज से खुली। जब तक
पुल बनना था, मजदूरों और ठेकेदारों को वहीं रहना था। नदी के उस पार उनका एक
अस्थायी गाँव था और इस तरफ साहब लोगों के रोबदार तंबू। वे दिन भर के काम के
बाद अब अलाव जला कर उसकी जलती बुझती रोशनी में मस्त होकर ढोलक बजा रहे थे।
उनके गानों की आवाज नदी के इस पार तक आ रही थी। वैसी ही ढोलक थी जैसी उन
बनजारनों के ढोल, और उनके गाने भी उनसे मिलते जुलते। मैं उठ बैठा। यह समझने
में वक्त लगा कि मैं कहाँ था, वहाँ कैसे पहुँचा। मच्छरदानी से निकल कर बाहर
आया। मैं नदी के पार वहाँ तक जाना चाहता था जहाँ से वह ढोलक की आवाज आ रही थी।
मेरे भीतर फिर कुछ छूटने को छटपटाने लगा, फिर, डियर मृण्मयी, उस घड़ी शिद्दत
से तुम्हारी याद आई। वे सारी बातें भी जो तुमसे कहनी थीं। कितना अच्छा होता कि
तुम उस वक्त वहाँ होतीं और मैं उतनी दूर से आती ढोलक और उनके गीतों की मदहोश
कर देने वाली आवाज की पृष्ठभूमि में तुमसे कह पाता। बाहर आने पर देखा, कुछ
दूरी पर खुले मैदान में कुर्सी मेज डालकर दो शख्स बैठे थे। मेज पर एक बोतल रखी
थी।
- साब जी, छोटे सरकार को भूख लगी होगी। ठेकेदार ने कहा।
- अब सो गया तो सो गया। खाना रखा है। उठेगा तो खा लेगा। पिता जी ने कहा।
- साब जी, खोलूँ? ठेकेदार ने कहा।
- खोल न।
टक की आवाज के साथ बोतल खुली। मैं तंबू के अँधेरे में से देख रहा था। यह कोई
और शख्स था, मेरा बाप हरगिज नहीं। हे भगवान वे कितने बड़े बड़े पैग बना रहे
थे। एक बड़ी चौकोर बोतल में काली सी शराब थी। ठेकेदार पूरा गिलास एक ही लंबे
घूँट में खटाक से खाली कर रहा था और मेरे पिताजी भी बड़े बड़े घूँटों में।
- भई क्या बात है, काम आगे क्यों नहीं बढ़ रहा? पिताजी ने नाराजगी के स्वर में
कहा।
- साहब जी, आप लो तो सही पहले। ठेकेदार ने कहा।
- नहीं, पहले जवाब दो, काम क्यों रुका पड़ा है। तुम लोग कामचोर हो।
- साहब जी काम की बात सुबह कर लेंगे न। ठेकेदार ने कहा, पिताजी के हाथ में
जबरदस्ती गिलास पकड़ाते हुए।
- नहीं इस तरह नहीं चलेगा। रिपोर्ट में सब लिखूँगा। पत्ता कट जाएगा तब पता
चलेगा। ठेकेदारों की कोई कमी नहीं है। पिताजी ने नशे में डूबती हुई एक उनींदी
आवाज में कहा। फिर एक बड़ा घूँट लिया।
- साहब जी, आप तो खामखाह नाराज होते हैं। ये बातें सुबह करेंगे न। ठेकेदार ने
कमीज की जेब से एक लिफाफा निकाल कर पिता को पकड़ाया। - अच्छा, खाना अभी खाएँगे
या थोड़ी देर में। मैं देख कर आता हूँ बना या नहीं।
वह नदी के आर-पार तने हुए लकड़ी के अस्थायी, हिलते डुलते पुल से दूसरी तरफ चला
गया, मजदूरों के उसी अस्थायी गाँव में जहाँ से ढोलक की आवाज आ रही थी। वहीं
अलाव की आग में मिर्चदार मुर्गा पक रहा था, खदबद खदबद। इस दौरान पिता उठ कर
डगमगाती चाल से तंबू तक आए। मैं जल्दी से मच्छरदानी में लेट गया, आँखें मूँद
लीं। पिता ने भीतर आ कर लालटेन की लौ को तेज किया, मच्छरदानी में झाँक कर मुझे
देखा। मैं मन ही मन eternity की स्पेलिंग याद करने लगा और infinity की। वही
बास 'कमरे' में भर गई जो उनके कपड़ों से आती थी जब वह कई दिनों के बाद किसी
रात अचानक पुलों से घर वापस आते थे। जिस रात उन्हें आना होता था, माँ को पता
नहीं कैसे अपने आप पता चल जाता था। वह सोती नहीं थी और लालटेन भी जलती रहती
थी। बहुत रात गए पटरियों पर ट्राली की वही खास, धीमी खट खट सुनाई देती थी। वह
मच्छरदानी से निकल कर दरवाजा खोल देती थी। दो खलासी पिता का बक्सा उठाए भीतर
आते थे और उनके पीछे पिता। उनकी छाया मेरी मच्छरदानी पर पड़ती थी। रात्रि के
सन्नाटे में अचानक हुई हलचल से मेरी नींद टूट जाती थी। मैं उठ कर बैठ जाता था।
वे मच्छरदानी को एक ओर से उठा कर, भीतर मुँह डाल कर पूछते थे - अच्छा,
appropriate की स्पेलिंग याद की?
मुझे पढ़ाने, होम वर्क कराने का जिम्मा माँ का था, मगर अँग्रेजी के लफ्ज, और
ग्रामर भी, पुख्ता कराने की जिम्मेदारी पिता ने ले रखी थी। यूँ ही चलते फिरते,
आते जाते। उन्होंने बरेली कॉलेज बरेली से अँग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया था।
घर आने पर यह उनका नियम था, दो चार लफ्जों के मायने और स्पेलिंग पूछना। तभी तो
उस छोटी सी उम्र में मुझे ऐसे ऐसे शब्द पता थे, eternity, infinity, justice
और appropriate। और ऐसे मुहावरे भी - टू बी ऑर नाट टू बी, व्हाट्ज इन ए नेम और
ए थिंग ऑफ ब्यूटी। मैं मन ही मन जल्दी जल्दी याद करता हूँ, ई टी ई आर... मुँदी
आँखों से देखता हूँ पिता को कमीज की जेब से वही लिफाफा निकालते हुए। उन्होंने
रुपये ध्यान से गिने, फिर गोल मोड़ कर टिकट पाकेट में रख लिए। लालटेन की लौ
धीमी की, फिर बू का एक तेज भभका तंबू में छोड़ कर बाहर चले गए। दूर नदी के उस
पार से मशालों के बैकग्राउंड में लकड़ी के पुल पर ठेकेदार आता नजर आया। पीछे
खरामा खरामा गोश्त चलता आ रहा था, मिर्चे झोंक कर बनाया गया मुर्गा और चावल और
रोटियाँ। एक बुढ़िया थी, सिर पर एक पोटली और हाथों में एक छोटी बाल्टी उठाए,
ठेकेदार के संग चलती हुई। ठेकेदार किसी को गर्दन से पकड़कर घसीटता हुआ ला रहा
था। वह छूटने के लिए छटपटाता था तो वह उसे थप्पड़ रसीद करता, फिर आगे धक्का
देता था। इस ओर आकर उसने उस अधेड़ मजदूर को एक लात मारी। वह काँपता हुआ आगे
आया, पिता के पैरों में लिपट गया। नदी के पार ढोल बजना बंद हो चुका था। वे एक
झुंड में खड़े इस ओर देख रहे थे।
- साहब जी, यह आज पकड़ में आया। ठेकेदार ने पास आते हुए चिल्ला कर कहा। अँधेरे
में भी उसकी आँखें अंगारे बरसा रही थीं। - इत्ती बार बुलवाया मगर आता ही नहीं
था, मादर...।
- कौन है ये? पिता ने पूछा।
- वही, आपको बताया था न। लीडर बनता है, बहन...., भड़काता है सबको। इसी की वजह
से...
मैंने साफ साफ सुना पिता को एक भद्दी गाली देते हुए। बात बात में शेक्सपियर और
शैली फेंकने वाला मेरा बाप। उसने उसे धक्का दिया, फिर चौड़े बक्कल वाली बेल्ट
खोल ली। ओफ, वह तंबू की झिरी में से भी कितना बेरहम, कितना जालिम दिख रहा था।
दे बेल्ट पर बेल्ट। वे दोनों मिल कर उसे जूतों से, लातों से मार रहे थे। वह
कराहने लगा, उसके कपड़े फट गए। खून भी बहा होगा। वो फिर भी मारते रहे तो मुझे
लगा वो मार डालेंगे, इटर्निटी तक मारते रहेंगे। इट इज नाट एप्रोप्रियेट, मैंने
सोचा। देयर इज नो जस्टिस, नो ब्यूटी। मुझे मितली आती महसूस हुई। इच्छा हुई कि
उस अधबने पुल में पलीता लगा कर तबाह कर दूँ, उसकी जगह वहाँ कोई गलीज चीज खड़ी
नजर आए। मैं दौड़ कर बाहर गया, ठेकेदार का हाथ पकड़ कर उसे रोकने की कोशिश की।
एक करारा थप्पड़ मेरे गाल पर पड़ा। यह मेरे पिता थे, चिल्लाते हुए - गो इनसाइड।
तब मुझे एहसास हुआ, प्यारी मृण्मयी, कि उस घड़ी मैं जहाँ खड़ा था, वह यह
दुनिया नहीं थी। वह दुनिया की एक अलग सतह थी, दूसरी परत या पिछवाड़ा। इस
दुनिया का बैकयार्ड, जैसे रेलवे का वह यार्ड था, जहाँ चीजों के मायने उलट होते
हैं। फिर एक पूरी की पूरी दुनिया बीच में आ गई थी, इस बार उस अदना, हकीर
ट्राली पर सवार होकर। तुम्हारा ख्याल दिमाग से उड़ गया। दीवानगी हवा हो गई।
इश्क से पहले मुझे इस दुनिया के, उसके स्ट्रक्चर के बारे में सोचना था जहाँ की
आबोहवा इतनी खतरनाक थी। मुझे ठेकेदारी और डेवलेपमेंट और उस अधबने पुल के बारे
में सोचना था। उस उम्र में उस अधूरे पुल का राज पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं था
जिसके साये में शेक्सपियर शाइलॉक का हमनवा हमप्याला और हमनिवाला था। मुझे
सिर्फ सोचना, सोचना, सोचते रहना था। मेरे बाप ने मेरी दीवानगी पर ठीक उसी जगह
दूसरा खंजर मारा जहाँ उस पीटी टीचर ने पहला मारा था, और तीसरा, डियर वाइफ,
तुम्हारे बंगाल प्रेमी बाप ने, जिसके बारे में कल लिखूँगा एक अलग मेल में। अभी
थक गया हूँ।
To - mrinmayi@mail.com
टिकट चेकर था न तुम्हारा बाप। वह नहीं जो ट्रेन में यात्रियों के संग संग सफर
करता है और रिजर्वेशनविहीन मगर गहरी जेबों वाले मुसाफिरों को रात भर की नींद,
थोड़ा सा आराम बेचता है। आँखों ही आँखों में यह सौदा तय होता है और प्लेटफार्म
के किसी अँधेरे कोने में या कंपार्टमेंट के गलियारे में या टायलेट के करीब
खामोशी से अंजाम दे दिया जाता है, बिना किसी के जाने। न वह जो एक्जिट गेट पर
काले कोट, काली कैप, काली टाई में नजर आता है, हर आते जाते मुसाफिर को रोकता
हुआ चिल्लाता है, टिकट प्लीज। वह तो टिकट चेकरों का चेकर था, उनका सबसे बड़ा
बॉस। स्टेशन से अलग, उसके पीछे, कुछ दूरी पर एक षड्मुखाकार बिल्डिंग में उसका
अलग 'दफ्तर' था। उसकी खिड़कियों पर हरे रंग के काँच थे, सामने और पीछे के लान
में हरी घास की चटाई और ऊपर एक गुंबद में से हर तरफ दूर तक गिरती, आँखों को
चुभने वाली एक सफेद रंग की बेरहम रोशनी। अंग्रेजों के वक्त की वह ऊँची इमारत
रहस्यमय लगती थी, लगता था कि उसकी मोटी दीवारों के पीछे कुछ असामान्य था, या
अशुभ, या अजीब। वहाँ कुछ कक्ष होंगे, अजीबोगरीब गलियारे, दरवाजे, सीढ़ियाँ,
चेंबर जिनमें कुछ भयावह हो रहा होगा। ऐसा क्यों लगता था, पता नहीं। मैं एक बार
'दफ्तर' के भीतर जाना, सब कुछ अपनी आँखों से देखना चाहता था, मगर इसका न कोई
मौका था, न बहाना। केवल स्कूल आते जाते रास्ते में कुछ पलों के लिए भीतर
झाँकना मुमकिन था। उस क्षण भर के नजारे में तुम्हारे पिताजी अपनी झक सफेद
वर्दी में सामने की कुर्सी पर बैठे नजर आते थे। काली वर्दियों में टिकट चेकर
उनके सामने हाथ बांधे खड़े रहते थे। मगर उस नजारे के आगे और पीछे, इधर उधर
क्या था? छह कोनों वाली इमारत के बाकी कमरों में क्या चलता था? एक बार बाहर एक
चीख की आवाज सुनाई दी थी, और फिर सन्नाटा। तुम्हारे पिताजी का चेहरा ध्यान से
देखो तो एक तरफ थोड़ी गहरी रंगत लिए था, उस तरफ की आँख भी लाल थी और उधर की
झुर्रियाँ कुछ ज्यादा गझिन। शायद उस आँख में विजन भी धुँधला बनता था। तुम्हें
आश्चर्य हुआ होगा कि मुझे यह कैसे पता। मैंने देखा था एक बार टिकट चेकर एक
बेटिकट छात्र को स्टेशन से 'दफ्तर' तक घसीटता लाया था। वह टी शर्ट और काला
चश्मा पहने था, और उसके मसल्स...। वह जुर्माना देने को राजी नहीं था, अपने
किसी रिश्तेदार का हवाला दे रहा था जो रेलवे या मंत्रालय का कोई बड़ा अफसर था।
सबकी वर्दियाँ उतरवा लूँगा, वह चिल्लाता हुआ कह रहा था। तुम्हारा बाप 'दफ्तर'
से निकल कर बरामदे में आया था। अपनी दाहिनी आँख उसके चेहरे के बहुत करीब लाकर
उसे पहचानने की कोशिश की थी। उससे कुछ कहा नहीं था, बस उसी ठंडी निगाह से एकटक
ताकता रहा था और उस बेचारे का खड़े-खड़े पेशाब निकल गया था।
पहले ही बता चुका हूँ कि छुटपन में ही दुनिया समझ में आने लगी थी। बड़े लोग
समझते रहें बच्चा, मगर मैं अक्ल का पुतला था। बस एक उड़ती सी नजर और सारी
दास्तान समझ में आ जाती थी। यह इसी से जाहिर है कि उस उम्र में जब इश्क की
स्पेलिंग भी पता नहीं होती, मायने तो छोड़िए, मैं इश्क का स्वाद ले रहा था भले
ही मन ही मन, एकतरफा - मगर ऐसा जैसा आज तक किसी ने किसी को न किया होगा।
Eternity और infinity और appropriate सब जानता था। मगर दुनिया की अपनी समझ में
एक सुराख था, तुम्हारे बाप का वही 'दफ्तर'। मैं यह जानने को मरा जाता था कि
वहाँ दीवारों पर क्या था, अगल बगल के कमरों में क्या चलता था? वह चीख की आवाज
क्या थी? कभी कोई रोता या चिल्लाता था, वह कौन था, और क्यों? सर्दियों में कभी
कभी तुम्हारा बाप 'दफ्तर' बाहर लान में, धूप में निकाल लाता था। उस समय हमारी
ओर उसकी पीठ होती थी लेकिन ऐसा लगता था जैसे वह पीठ के पीछे भी देख सकता है।
वह अपनी कुर्सी पर बैठा रहा करता था और सामने टिकट चेकर पुतलों की तरह हाथ
बांधे, उसके निर्देश सुनते हुए चुपचाप खड़े रहते थे। जब हम 'दफ्तर' के सामने
से गुजरते थे, वह टिकट चेकरों से कुछ कहते हुए खामोश हो जाता था, हमारे वहाँ
से गुजर जाने के बाद अपनी बात पूरी करता था। वह हिलता डुलता भी नहीं था, जैसे
कुछ बजने लगेगा या बाहर आ गिरेगा। जमीन पर बेटिकट पकड़े गए यात्री उकड़ूँ बैठे
होते थे। दूर से लगता था कि वह उनसे चीखती आवाज में कुछ कह रहा है मगर करीब
पहुँचने पर सच्चाई औेर नैतिकता की बातें सुनाई देती थीं। आप लोग जिम्मेदार
नागरिक हैं। बिना टिकट यात्रा करना, आपको शर्म नहीं आती? सोचना चाहिए कि इस
तरह आप देश की तरक्की में बाधक बनते हैं। यह समाज विरोधी है। हमारे बंगाल
में...। वो चुपचाप सिर झुकाए बैठे रहते थे।
फिर वह अद्भुत, असाधारण, अविश्वसनीय, अविस्मरणीय दिन आया जिसे खुदा का करिश्मा
ही कहना होगा। मेरी 'दफ्तर' के भीतर जाने, वहाँ एक एक कमरा, एक एक कोना, वहाँ
की सीढ़ियाँ और गलियारे, सब कुछ अपनी आँखों से देखने की साध पूरी हुई, और किस
तरह। मैं उस दिन जैसे 'दफ्तर' का मालिक था, वह मेरे कब्जे में था, मेरी जागीर
था, मेरी सल्तनत। मैं तुम्हारे बाप की कुर्सी पर बैठा था, उसी रोबीली मेज के
सामने जिसके गिर्द तमाम टिकट चेकर पुतलों की मानिंद झुके रहते थे। मैं एक
कविता लिख रहा था, 'दफ्तर' के कागज पर और तुम्हारे पिता की पेंसिल से, अपनी
जिंदगी की पहली और अकेली कविता। एक प्रेम कविता, मेरी जान, तुम्हारे लिए,
तुम्हें ही संबोधित। तुम रवींद्र संगीत सुना रही थीं। भला कोई इसकी कल्पना कर
सकता था? 'दफ्तर' में बस हम लोग थे, रेलवे स्टाफ कालोनी के तमाम बच्चे। उस दिन
पूरे डिवीजन के टिकट कलक्टरों का सबसे बड़ा अफसर, तुम्हारे बाप का भी बॉस,
स्टेशन का मुआयना करने आ रहा था। वह अपने ड्राइंगरूम जैसे 'सैलून' में, जिसमें
एक पलंग था और एक सोफासेट और एक अटैच्ड बाथरूम और किचन भी, हर साल एक बार
मुआयने के लिए निकलता था। तुम्हारे पिता और तमाम टिकट चेकर फूलमालाओं समेत
स्टेशन पर उसकी ट्रेन का इंतजार कर रहे थे। वाह, तुम बंगालियों का कला
प्रेम... यह तुम्हारे बाप की ही सूझ थी कि उसके स्वागत में एक 'कल्चरल
प्रोग्राम' पेश किया जाए। 'दफ्तर' के सामने लॉन में मंच बनाया गया, कुर्सियाँ
लगाई गईं। चूने का छिड़काव किया गया, मंच पर गुलदस्ते करीने से सजाए गए।
प्रोग्राम की तैयारी और रिहर्सल के लिए दोपहर से ही सारा 'दफ्तर' बच्चों के
सुपुर्द कर दिया गया। मुझसे उम्मीद की गई थी कि मैं कोई खुद की लिखी कविता पेश
करूँगा, बेहतर हो कि अँग्रेजी में, मेरी अँग्रेजी जो इतनी जबरदस्त थी। शायद
उन्होंने मुझे शेक्सपियर समझ लिया था, या महाकवि कालिदास।
सबसे पहले मैंने बिना वक्त गँवाए 'दफ्तर' का मुआयना किया, एक जासूस या
रिपोर्टर की निगाहों से - उसका एक एक चेंबर, एक एक कमरा। वहाँ एक रुकी हुई,
बासी हवा में सिर्फ कुर्सियाँ, मेजें, बेंचें, फाइलें, कागज थे, और कुछ भी
नहीं। दीवारों पर गांधी जी और टैगोर की तसवीरें और सुभाषित थे। गलियारे से
सीढ़ियाँ ऊपर तक जाती थीं। वहाँ भी बंद कमरों के शीशे के दरवाजों के पीछे एक
परम स्थिरता में सिर्फ फर्नीचर और फाइलें थीं, और कुछ भी नहीं। सन्नाटा जरूर
कुछ अधिक गाढ़ा था। एक कमरे में फर्श पर धूल से सने टिकटों का ढेर था। वह तमाम
दफ्तरों की तरह एक साधारण दफ्तर था, कुछ भी असामान्य या अजीब नहीं। मैं नीचे
चला आया, बीच वाले सबसे बड़े दफ्तर में तुम्हारे पिता की कुर्सी पर बैठ कर
कविता या 'पोयम' के बारे में सोचने लगा जो मुझे थोड़ी देर में पेश करनी थी।
साथ के कमरे से, जहाँ तुम एक सहेली के साथ अभ्यास कर रही थीं, रवींद्र संगीत
सुनाई दिया। उससे जुड़े कमरे से बच्चों की हँसी और शोरगुल की आवाजें आ रही
थीं। वे एक हास्य नाटिका की तैयारी कर रहे थे। वहाँ तुम्हारे बाप की कुर्सी पर
बैठे, कागज को एकटक तकते, तुम्हारे इतना करीब, तुम्हारा गाना सुनते हुए...
डियर वाइफ, फिर सीने में कुछ सुलगने लगा, छूटने को छटपटाने लगा। जैसे उस संगीत
ने फिर कोई ताला खोल दिया था, बनजारनों के ढोल या उन मजदूरों की ढोलक की तरह।
कविता मेरी सात पुश्तों में किसी ने न लिखी होगी। सिर्फ भीतर से एक लगातार
धुकधुकी के धक्कों मे जो बाहर आता रहा, उसे टूटे हुए वाक्यों में उतारता रहा।
मुनमुन, मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ। इतना जितना आज तक किसी ने किसी को
नहीं किया। मुझे कभी छोड़ कर न जाना, हमेशा मेरे साथ रहना। एक दिन के लिए भी
नहीं, एक पल के लिए भी नहीं। वरना चारों दिशाओं में खाली निगाहों से तकता
रहूँगा, पृथ्वी पर भटकता रहूँगा। इसी तरह की बातें। बाद में कार्यक्रम के
दौरान, जब तुम रवींद्र संगीत पेश कर चुकीं, अपना नंबर आने पर मैने यह कविता
तुम्हारे साँवले चेहरे पर सफेद उज्ज्वल आँखों में सीधे देखते हुए सुनाई, बीच
बीच में तुम्हारे पिता को देखते हुए। मैं देख सकता था कि वह कितना खुश है।
उसने मुख्य अतिथि, उस अफसरों के अफसर, हाकिम-उल-हुक्काम के पास चेहरा लाते हुए
उसके कानों में कुछ कहा और वह भी मुस्कराने लगा। 'प्रीकॅाशस चाइल्ड' उसने कहा
होगा, या 'कितना टेलैंटेड है'। कविता सुनाते हुए मैने सिर्फ उसका शीर्षक बदल
दिया था, 'मुनमुन मेरी जान' की जगह 'हे ईश्वर'। ये बड़े और समझदार लोग जो
बच्चों को सिर्फ बच्चा समझते हैं, कितनी आसानी से, बस इसी तरह चुटकी बजाते,
उल्लू बनते हैं। कार्यक्रम बहुत सफल रहा। मुख्य अतिथि ने मुझे अपने पास
बुलवाया, हाथ मिलाया, पीठ पर हाथ रखा। कार्यक्रम के दौरान पीछे 'दफ्तर' की
दिशा से बीच बीच में कुछ आहें, कराहें, एक दबी सी चीख सुनाई दी थी, मगर वह
मेरा भ्रम रहा होगा। उन्हें सिर्फ मैंने ही सुना था, किसी और ने नहीं। उसके
तुरंत बाद तुम्हारा बाप और उसके पीछे पुतलों की तरह चलते टिकट चेकर उस अफसरों
के अफसर को स्टेशन पर छोड़ने चले गए। उसे अगले स्टेशन के मुआयने के लिए जाना
था।
कहाँ चली गई थी, तुम, मुनमुन। कार्यक्रम के बाद उस मैदान में खाली कुर्सियों,
मुसली फूलमालाओं और बिखरे हुए सामान के बीच खड़ा मैं तुम्हें ही तलाश रहा था।
अपने हाथों में वही कागज थामे, जिसमें वह सब कुछ लिखा था जो तुमसे कहना था। वह
तुम्हें देकर मुक्त हो जाना चाहता था, आखिरकार। मैंने हर तरफ देखा, तुम कहीं
नहीं थी। मैं खाली 'दफ्तर' में चला गया। तुम वहाँ भी नहीं थी। मैं गलियारे की
सीढ़ियों के रास्ते ऊपर की मंजिल पर गया, वहाँ हर कमरे में तुम्हारी तलाश की।
वहाँ कोई नहीं था। शाम गहरी होती जा रही थी।
काफी देर हो गई होगी जब ऊपरी मंजिल पर हर कमरे में, हर तरफ तुम्हें तलाश करने
के बाद, कहीं तुम्हें न पाकर, वापस चलने के लिए मै सीढ़ियाँ उतरने लगा, तब मुझे
वह नजर आया। वह वहीं था, उसी 'दफ्तर' में, बिल्कुल आसपास, मगर अदृश्य... किसी
ऐसी जगह जहाँ पहुँचना तो दूर, जिसका तसव्वुर लाना भी बाहर के लोगों के लिए
नामुमकिन होगा। उसे इतनी सफाई से छुपा कर रखा गया था। तब मैंने जाना मैं जितना
देख सका था उसके अलावा 'दफ्तर' में और भी गलियारे थे, और भी सीढ़ियाँ, घूम कर
कहीं जाती हुई, कहीं छुपी हुई कोठरियाँ, कोई जेल जैसी जगह। अबू गरेब,
गुआंतानामो बे, यातना कक्ष, कंसेन्ट्रेशन कैंप।
नीचे की मंजिल पर 'दफ्तर' का दरवाजा बाहर से बंद था। चौंधियाँ देने वाली बहुत
पीली रोशनी में आर.पी.एफ. के जवान खाकी वर्दियों में, पता नहीं कहाँ से, किन
रास्तों से उन्हें घसीट कर ला रहे थे। बेटिकट पकड़े गए मुसाफिर जिनके पास
जुर्माने के रुपये नहीं होंगे, सुबह से कहीं भीतर कैद थे। उनमें फटेहाल
देहातियों का एक झुंड था जिसमें कुछ बुढ़ियाएँ भी थीं, सूजी आँखों वाली। उनके
अलावा एक दुबला पतला शख्स, शायद किसी कारखाने का मजदूर और बहुत लंबी दाढ़ी और
जटाओं में एक अधेड़ साधु जिसने दुनिया त्याग दी थी। तुम्हारा बाप 'दफ्तर' के
बीचोंबीच खड़ा था, उस मेज के दूसरी तरफ जहाँ अभी कुछ देर पहले मैंने एक कविता
लिखी थी - और उसके इर्द गिर्द काली वर्दियों में चार पाँच टिकट चेकर्स।
आर.पी.एफ. का जवान दूर से धक्का देते हुए उन्हें तुम्हारे बाप के सामने धकेलता
था, संभल पाने से पहले ही उसके गाल पर तमाचा पड़ता था। अपनी दाहिनी, कुछ अधिक
लाल, निस्पंद आँख से सारा नजारा देखते हुए वह कितना बेरहम, जालिम, कितना
डरावना लग रहा था - निरंकुश सम्राट, अपने एंपायर का तानाशाह। वह जो कविता का
प्रेमी और संगीत का रसिया बनता था, इस समय माँ और बहन की कितनी भद्दी
गालियाँ... लगता है वो इस देश के सारे हिस्सों में, शायद पड़ोसी मुल्कों में
भी एक ही हैं, या एक जैसी। और किस तरह चीख रहा था, कितनी ऊँची आवाज में।
आर.पी.एफ. के जवानों की आँखें चमक रही थीं, होठों पर मुस्कान थी। वे मुस्कराते
हुए मार रहे थे। केवल तुम्हारा बाप गुस्से में चिल्ला रहा था - तुम्हारे बाप
की गाड़ी है? मुँह उठाया, चले आए। और सालो, मना किया था न, दो घंटे कोई आवाज न
आए, एकदम खामोश। कौन चीख रहा था? तू था? उसने साधु का गट्टा पकड़ लिया, फिर
उसे छोड़ कर एक दूसरे देहाती का। टिकट चेकरों ने उसे पीछे से पकड़ लिया और
बाँहें मरोड़ते हुए, तुम्हारे बाप के सामने, हवा में इस तरह थामे रहे कि वह
गिर न पड़े। अपने दाईं तरफ की डरावनी आँख उसके करीब लाते हुए तुम्हारे बाप ने
कहा - पहले तू निकाल।
- जी...। देहाती ने कहा, कुछ समझे बिना।
- निकाल साले, पैसे निकाल। जल्दी।
- जी, पैसे? उसकी आवाज थरथराने लगी।
- पैसे निकाल वरना अभी चालान कर दूँगा। सीधे साल भर को जाएगा, समझा?
- जी, पैसे होते तो...। वह गिड़गिड़ाने लगा।
- पैसे नहीं थे तो गाड़ी में क्यों घुसा? तेरे बाप की ट्रेन है? उसने उसकी
गर्दन को अपने पंजे में तब तक दबोचे रखा जब तक वह गों गों करने लगा। - और वह
जो तेरा बाप आया था वसूली करने, उसे अपनी जेब से दूँगा?
- सर आप बीपी मत बढ़ाइए, आप बैठिए आराम से। इन्हें हम लोग देख लेंगे। कहते हुए
एक टिकट चेकर उसे उसकी कुर्सी तक ले आया। जिस पेन्सिल से थोड़ी देर पहले मैंने
कविता लिखी थी, उसे नचाते हुए वह वहीं बैठ कर दूर से पिटाई का संचालन करने
लगा। जिस तरह आर्केस्ट्रा में कंडक्टर बैटन नचाता है। वह भयानक म्यूजिक था,
चीखों का, एक औरत की लगातार रुलाई का, एक गिड़गिड़ाने की आवाज, नहीं, नहीं,
साहब, नहीं, एक आदमी के फर्श पर गिरने, घसीटे जाने की आवाज, और फिर आहें और
रुलाई। इस दौरान दूसरी औरत का लगातार विलंबित - मइया रे...। साधु अपनी चोटें
सहलाता हुआ एक कोने में बैठ कर ध्यान में चला गया था। - जो पैसे न दें सबका
चालान काटो, कहता हुआ तुम्हारा बाप हौले से 'दफ्तर' का दरवाजा खोलकर बाहर चला
गया। थोड़ी देर के बाद आर.पी.एफ. के जवान उन्हें गाली देते और एक झुंड में
धकेलते हुए उसी अदृश्य, प्रच्छन्न गलियारे से भीतर ले जाने लगे।
मुझे याद नहीं कि मैं कैसे, कितनी देर के बाद 'दफ्तर' से बाहर आया। मेरे हाथ
में वह कागज अभी तक काँप रहा था। कब वह मेरी पसीजी हथेली से एक कुचली गोली बन
कर फिसल गया, पता ही नहीं चला। बाहर कोई नहीं था। घास के मैदान पर घुप अँधेरा
था। 'दफ्तर' के गुंबद की पलकें जलाने वाली रोशनी जली, दूर तक बिखर गई। मैं
चुपचाप धीमे कदमों से घर की ओर चलने लगा। मेरा बदन गर्म था और पैरों की ओर से
एक कँपकँपी ऊपर उठती आ रही थी। जेहन में एक बार तुम्हारा चेहरा चमका मगर
तत्काल धुँधला पड़ गया। उसकी जगह तुम्हारे बाप का वही जालिम, डरावना चेहरा
सामने आ गया जो आधा लाल था, निस्पंद दाहिनी आँख और उसके नीचे मकड़ी के जालों
जैसी झुर्रियाँ। उसकी वह चीखती आवाज अभी तक कानों में गूँज रही थी - पैसे
निकाल, बहन..., पैसे। 'प्रीकॉशस' चाइल्ड सही मगर मेरी उम्र अभी समाज
व्यवस्थाओं और तानाशाहियों के बारे में सोचने की नहीं थी। 'गुआंतानामो' की
क्षणिक झलक से सिर्फ इतना समझ में आया था कि दुनिया कोई आसान जगह नहीं थी, और
वहाँ की आबोहवा खतरनाक थी, बेहद। मैं चीखना चाहता था। रास्ते में तुम्हारा घर
पड़ा, वही खिड़की, लालटेन की रोशनी, ठाकुर साहब, संगीत। घुप अँधेरे में वहीं
खिड़की के नीचे मैंने उलट दिया जो पेट की मरोड़ों में उठता आ रहा था। मेरे
बचपन का मासूम इश्क? दीवाना प्यार? वे वहीं 'दफ्तर' में रह गए, उन्हीं सीढ़ियों
के आसपास जहाँ से छुप कर मैंने वह सारा नजारा...।
तीस साल हो गए हमें मियाँ बीवी की तरह साथ रहते। नहीं, सिर्फ उस 'तरह' नहीं,
बतौर मियाँ बीवी ही। यह कोई इश्किया शादी नहीं थी न पूरी दुनिया से लड़कर या
घर से भाग कर की गई थी। एक साधारण, घिसी पिटी, पारंपरिक शादी जो हमारी माँओं
ने मिल कर आपस में तय की थी, उसी साल जब तुम्हारा बाप एक गाड़ी की मजिस्ट्रेट
चेकिंग के दौरान मारा गया। उसकी दाहिनी आँख का विजन पहले ही धुँधला बनता था,,
फिर आगे चल कर उस तरफ का हाथ भी काँपने लगा था। बेटिकट मुसाफिरों को धर दबोचने
उसने चलती हुई गाड़ी में चढ़ने की कोशिश की, काँपते हाथ ने हत्था छोड़ दिया, जो
यूँ भी उसे धुँधला नजर आ रहा होगा, और वह इंडियन रेलवेज की बलिवेदी पर शहीद
हुआ। उस समय तक मेरी नौकरी लग चुकी थी लेकिन तुम अभी बी.एड. में पढ़ रही थीं।
खुशकिस्मती से हमारी माँओं के दिमाग में प्रांत और जात जैसे जाले नहीं थे।
मेरी माँ तुम्हारे बाप के मरने के बाद तुम्हारी माँ को कम से कम एक फिक्र से
आजाद कर देना चाहती थीं। तुम्हारे फाइनल एक्जाम के कुछ दिनों के बाद चंद लोगों
की एक सादी बारात लाइन के इस पार से उस पार तक गई। रास्ते में एक गाड़ी के
गुजरने के दौरान वह कुछ देर क्रासिंग पर खड़ी रही।
मशीनी प्यार, मैकेनिकल लव, जो एक आदत सरीखा होता है, नाप तोल कर दिया और लिया
जाता है, एक दम सही मिकदार में, और जिसमें लेने और देने का हिसाब हमेशा बराबर
होता है। फोन पर जो आखिरी बातचीत हुई उसमें तुमने ऐसा ही कुछ कहा था। जिसमें
एक ऊबी हुई, उनींदी आवाज में कहा जाता है, हाँ हाँ हाँ करता हूँ न, प्यार - और
बीच में ही नींद आ जाती है। बच्चों का असेम्बली लाइन प्रोडक्शन। ऐसे ही जिंदगी
बीत जाती है। तुमने कहा था, यह नहीं, तुम्हें दूसरा वाला प्यार चाहिए। वह जो
किताबों में होता है, कविताओं में होता है। पागल प्यार, दीवानगी, मैडनेस।
तुमने कहा था कि उस दूसरे प्यार को पाने के लिए कोई दूसरा जीवन नहीं मिलेगा।
मैं यह वजह किसी को नहीं बता सकता, एक्स्प्लेन नहीं कर सकता। क्या कोई यकीन
करेगा कि महज इस वजह से एक बयालीस साल की औरत अपनी सुखी शांत गृहस्थी छोड कर,
बिना किसी को बताए, पता नहीं कहाँ चली गई।
प्रिय मृण्मयी, मेरी गुमशुदा बीवी, यह आखिरी कोशिश है, आखिरी बार, बस एक मौका
देने की। आखिरी मौका। तुम्हें जिस दीवानगी की तमन्ना है, मैं उसका वादा नहीं
कर सकता। उसके लिए शायद अब उम्र बीत गई। लेकिन जिंदगी में उस तरह का एक मौका
या कम से कम एक पल, एक मूवमेंट हासिल हो, यह हक सभी को है। मैं बस एक लम्हे का
वादा कर सकता हूँ, उससे ज्यादा नहीं।
To : arunawasthi@mail.com
वापसी की ट्रेन वही
पहुँचने का वक्त 3.40 PM
पहुँचने की तारीख **/**/****
- मृण्मयी उर्फ मुन्नी उर्फ मिनी उर्फ मिन्नी उर्फ मुनमुन (काली माई)।
♦♦♦♦
मृण्मयी को जिस दिन वापस आना था, उसकी पिछली रात अरुण को बहुत देर तक नींद
नहीं आई। वह सोचता रहा कि ट्रेन अब तक कहाँ पहुँच गई होगी, क्या उसकी बीवी
आराम से होगी। खोकन ने भी रिटायरमेंट के बाद कहाँ रहना पसंद किया, इतनी दूर
समुद्र के किनारे मुश्किल नाम वाले उस छोटे शहर में जहाँ रेल की पटरियाँ
समाप्त हो जाती थीं। अरुण के मन में न जाने कैसी आशंकाएँ सिर उठा रही थीं। उसे
एहसास था कि ट्रेन बहुत दूर से, इस महाद्वीप के आखिरी छोर से, सारे का सारा
देश पार करती हुई आ रही थी, वही जिसकी विकास दर नौ प्रतिशत है और आबोहवा
उन्मत्त, और जहाँ अब तक दो लाख से ज्यादा...। ट्रेन को आगजनी से, गोलियों की
बौछार के बीच से गुजर कर आना होगा। वह इस ओर से ध्यान हटा कर उस दीवाने लम्हे
के बारे में सोचने की कोशिश करता है जिसका वादा उसने अपनी पत्नी से किया है।
आधी रात के वक्त उनींदे, खामोश डिब्बे में मृण्मयी ने थकी आँखों से खिड़की के
बाहर देखा होगा। वहाँ घने अंधकार का एक काला पर्दा होगा। कहीं से एक जर्रे के
बराबर रोशनी छिटक आई होगी, चिनगारी सरीखी। अगले ही पल बहुत दूर बहुत सारी जलती
बुझती रोशनियाँ, इस तरह जैसे पर्दा भक से जल उठा हो, पलक झपकते राख हो जाएगा।
मृण्मयी ने अपनी बर्थ पर लेट कर साथ का बल्ब बुझाया होगा, चादर सिर तक ओढ़ ली
होगी। ट्रेन ने थपकियों जैसे हिचकोलों में, खट खट का मीठा संगीत सुनाते हुए
उसे थोड़ी ही देर में सुला दिया होगा - एक गहरी, शांत, सुखद नींद। लेकिन अरुण
की आँखों से नींद कोसों दूर है। सुबह होने से कुछ देर पहले उसके भारी पपोटे
बंद हुए, बस थोड़ी देर के लिए, और उस दौरान भी उसे सपने में रेलगाड़ियाँ नजर
आती रहीं, रेलगाड़ी के भीतर रेलगाड़ी, सवारी गाड़ियाँ, माल गाड़ियाँ, काले भुच
भीमकाय इंजन, भाप के बादलों में तैरते हुए और कोयले के कणों की बरसात। सपने
में ही इंजन के भोंपू की भारी, गूँजती सी आवाज सुनकर अरुण की नींद खुली तो
उसने देखा दिन काफी चढ़ आया था।
अरुण पूरे घर में झाड़ू लगाता है। हर कमरे में फर्श पर ढेरों ढेर पपड़ियाँ जमा
हो गई थीं, उसने उन सबको बुहार कर बाहर फेंका, फिर घर की हर चीज को, जहाँ भी
धूल नजर आई, अच्छी तरह चमकाया। कुर्सियाँ, मेजें, सिंगार टेबल, अलमारियाँ,
आईना, टेलीफोन। इतने दिनों ज्यादातर खाली रहे घर को कहीं प्रेतों ने खालाजी का
घर न समझ लिया हो, अरुण उन्हें मन ही मन संबोधित करते हुए कहता है, अब निकल
लो, वरना वह बंगालन आ रही है, तुम्हारे लिए 'उलूकध्वनि' का अचूक हथियार लेकर।
उसने नई बेड शीट्स बिछाईं, सारे मैले कपड़े समेट कर वाशिंग मशीन में डाले, फिर
फ्रिज खोल कर एक एक चीज का मुआयना किया। रोहू वह पिछली शाम को ही ले आया था
जिसकी आँखों पर उँगलियाँ फेर कर उसने इत्मीनान किया कि वह अब तक ताजी है। आज
वह अपनी प्यारी बीवी के लिए खुद 'मूड़ीघांटो' बनायेगा जिसकी रेसिपि उसने
इंटरनेट से प्राप्त की है। उसका बस चलता तो वह हिल्सा खरीद कर लाता, पद्मा नदी
की हिल्सा जो कहते हैं कि दुनिया की सबसे स्वादिष्ट मछली है, सीधे बंगलादेश से
उड़कर आती है। मगर यह छोटी सी जगह है जहाँ के लिए हिल्सा उतनी ही दूर की चीज
है जितना... जैसे... सेक्सोफोन।
किचन का काम पूरा कर ठीक सवा तीन बजे अरुण शेव करने, नहाने के बाद नए कपड़े और
जूते पहन कर स्टेशन जाने के लिए घर से निकलता है। मृण्मयी की गाड़ी तीन बजकर
चालीस मिनट पर आएगी। चलने से पहले वह दो चार फोन करता है, ताकीद करता है कि सब
लोग ठीक समय पर स्टेशन पहुँच जाएँ, पक्का। गाड़ी सामने आकर रुकेगी और ठीक उसी
जगह जहाँ उसे आखिरी बार देखा था, एक ऐसी ब्लैक ब्यूटी नीचे उतरेगी जिसके आगे
मधुबाला और मार्लिन मुनरो दोनों निष्प्रभ जान पड़ें। कंपार्टमेंट से बाहर के
गेट तक उसके कॉलेज के स्टूडेंट्स की दो कतारें होंगी जिनके बीच उनकी तालियों
की आवाज सुनते वह धीरे धीरे बढ़ती आएगी। आखिरी छोर पर अरुण हाथों में एक फूल
थामे उसका इंतजार करेगा। वह घुटनों के बल झुक कर, वैसे ही जैसे उपन्यासों में
होता है, उस ब्लैक ब्यूटी को फूल पेश करेगा, फिर वो सारी बातें कहेगा जो उसने
तीस साल पुरानी उस कविता में लिखी थीं। 'मृण्मयी मैं तुमसे बहुत प्रेम करता
हूँ' से लेकर 'भटकता रहूँगा' तक। अरुण को एक एक लफ्ज याद है, फिर भी वह मन ही
मन सारी बातें दोहराता है।
ट्रेन के आने के वक्त धूल भरी मटमैली हवा चली और आसमान तांबे के रंग का हो
गया। धीमी बरसात होने लगी जो बरसात जैसी नहीं थी। यह तो जैसे लहू टपक रहा था।
अरुण प्लेटफार्म के किनारे आकर दूर पटरियों पर उस गोलाई को ताकता है जहाँ पहले
आती हुई ट्रेन का इंजन नजर आता है, फिर माल डिब्बा, फिर सवारियों के डिब्बे।
ट्रेन धीमे धीमे धक्कों में आगे बढ़ती है। वह एक नंबर प्लेटफार्म पर नहीं, बीच
में दिशा बदल कर वहाँ से बहुत दूर, आखिरी प्लेटफार्म पर खड़ी हो जाती है। पहले
से आखिरी डिब्बे तक पूरी की पूरी जली हुई ट्रेन।